5000 स्कूल कॉलेजो में और 800 जेलों कारागृह में नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाया है जिससे इनका नाम इंडिया बुक रिकार्ड में दर्ज है ब्रह्माकुमारीज़ माउंट आबू में ईश्वरीय सेवा में 35 वर्षो से समर्पित है.
Friday, 28 October 2011
बिना लक्ष्य के हजार कदम भी चलो तो वह भी व्यर्थ है । मैं बिना लक्ष्य की दौड को यात्रा नहीं, पागलपन कहूंगा, भटकाव कहूंगा । तुम घर की देहरी से बाहर पैर तभी रखते हो जब कोई जरुरी काम होता है, सामने कोई लक्ष्य होता है । अकारण तो तुमच कुछ भी नहीं करते । फिर तुम इस दुनिया में क्या अकारण ही आए हो ? जीवन का लक्ष्य और मंजिल की तलाश ही तुम्हारा यहां आने का कारण है । यदि यों ही अकारण जीवन भर भागते रहे तो सच मानो तुम्हारी यात्रा मरघट के आगे नहीं हो सकती । मरघट से आगे मोक्ष तक की यात्रा तो वे ही तय कर पाते हैं जो जीवन में उच्च लक्ष्य को लेकर चलते है । तो मैं दिल्ली था । वहॉं मैंने देखा कि कहने तो तो ये बाप और ये बेटा है मगर सच्चाई ठीक इससे उल्टी ही देखने को मिली है । वहां बेटा बाप है और बाप बेटा है । बेटों पर बापों का वहां कोई नियंत्रण नहीं हैं, बेटों पर वहां बापों का कोई अधिकार नहीं है । गांवो में, घर परिवार में जैसे बडे-बुजुर्गों का एकछत्र राज्य चलता है, दिल्ली में ऐसा कुछ नहीं दिखता । वहां सभी अहमिन्द्र हैं । सभी अपने मन के राजा हैं । और जिस घर में एक साथ दो-दो आदेश चलने लगें तो समझना कि उस घर में फूट होने वाली है । वह घर शीघ्र ही बिखरने वाला है, टूटने वाला हैं । महानगरों में परिवार बडी तेजी से टूट रहे हैं । संयुक्त परिवार की अवधारणा बडी तेजी से लुप्त हो रही है । कारण जो मुझे समझ में आया वह सिर्फ यही है कि नई पीढी में "आई क्यू' तो बढ रहा है मगर समझदारी कम हो रही है, बुद्धि तो बढ रही है मगर विवेक खो चला है । आज की शिक्षा प्रणाली ने बालक को सभ्य तो बना दिया लेकिन वह उसे सुसंस्कृत नहीं बना पाई । शिक्षा का फल तो विनम्रता और समर्पण है मगर आज का तथाकथित उच्च शिक्षित वर्ग अहंवादी हो चला है और यही अहम्मन्यता पारिवारिक और सामाजिक बिखराव में कारण बन रही हैं । महानगरों में हालत यह है कि वहां चार-चार जवान बेटे मिलकर भी अपने बूढे मॉं-बाप की परवरिश नहीं कर पा रहे हैं । आजकल अब बडे शहरों में वृद्धाश्रमों, अनाथ-आश्रमों का प्रचलन तेजी से बढ रहा है, जहां पर बेटे लोग अपने बूढे मॉं-बाप को डाल आते हैं और सेवा के नाम पर हर महीने एक निश्चित राशि भिजवाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं । मैं बुजुर्गों से एक विनम्र निवेदन करता हूं कि जब वे जीवन के आखिरी पडाव पर पहुँचे, जब उन्हें लगने लगे कि अब उनकी परिवार के प्रति जो जिम्मेदारियां थीं, वे पूर्ण हो गई हैं, बेटे अपने पैरों पर खडे हो गए हैं और अपना खाने-कमाने लगे हैं तो वे अपना शेष समय ईश्र्वर भजन, धर्म-ध्यान और पूजा-पाठ को समर्पित कर दें । बेटों-बहुओं की जीवन-शैली में अनावश्यक दखलंदाजी एकदम बंद कर दे । जरा-जरा-सी बात पर अनावश्यक सलाह देना बंद कर दें क्योंकि बूढ आदमी का रोम-रोम चंचल होता है मगर यह जो बूढा आमदी होता है न, इसकी जुबान चंचल होती है । वह जीभ से कुछ न कुछ बोलता रहेगा फिर भले ही कोई सुने, न सुने । इसलिए मैं कह रहा हूं बुजुर्ग आदमी को चंचल जुबान पर लगाम रखनी चाहिए । बुजुर्ग व्यक्ति को नपा-तुला बोलना चाहिए । जो नपा-तुला बोलते हैं उनके बोल अनमोल होते हैं और उन बोलों को दुनिया सदा याद रखती है ।
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