रजापिता ब्रह्मा बाबा ने अपना पूरा जीवन मानवता की सेवा में लगा दिया था। बाबा यह अच्छी तरह जानते थे कि यदि विश्व में शांति की स्थापना करनी है तो उसके लिए जरूरी है कि सभी मनुष्यों के अंदर शांति का बीजारोपण हो। इस सोच के साथccने उन सभी वर्जनाओं को तोड़ने का प्रयास किया, जो व्यक्ति को जाति-धर्म और रंगों के आधार पर विभाजित करते हैं।
बाबा के बचपन का नाम दादा लेखराज था। वे बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इनका जन्म सन् 1876 में सिंध प्रांत (वर्तमान में पाकिस्तान) के एक कुलीन और साधारण परिवार में हुआ। बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो गया। जरूरतमंत लोगों की हर स्थिति में मदद करना इनके व्यक्तित्व में शुमार था। वे ईश्वर की अराधना केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के लिए करते थे। लेखराज बचपन से इतने सौम्य और असाधारण थे कि इन्हें लोग प्यार से दादा कहते थे। दादा बड़े होकर हीरे-जवाहरातों के व्यापार में लग गए। लेकिन इनके जीवन में परिवर्तन साठ साल की उम्र में आया। बाबा को वाराणसी में अपने मित्र के घर एक रात ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। भगवान शिव ने इन्हें नई दुनिया बनाने के महान कार्य का दायित्व सौपा। इस दिव्य दृश्य ने उनके जीवन को बदल कर रख दिया तथा वैराग्य को अपना लिया। बाबा ने अपनी चल-अचल संपत्ति बेचकर एक ट्रस्ट की स्थापना की, जिसमें माताओं-बहनों को आगे रख समाज के बदलाव की प्रक्रिया का आगाज किया। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद यह संस्था राजस्थान के माउण्ट आबू आई तथा पूरे देश-विदेश में मानवीय सेवाओं का दौर प्रारंभ हुआ। इस यात्रा में सभी धर्म-संप्रदाय के लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। बाबा ने अपनी संपूर्णता को प्राप्त करते हुए 18 जनवरी, 1969 को अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। बाबा स्थूल रुप से तो हमारे बीच नहीं है परंतु उनकी सूक्ष्म उपस्थिति आज भी हमें काल की तरफ बढ़ रही दुनिया में नई दुनिया की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर रही है।
बाबा के बचपन का नाम दादा लेखराज था। वे बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इनका जन्म सन् 1876 में सिंध प्रांत (वर्तमान में पाकिस्तान) के एक कुलीन और साधारण परिवार में हुआ। बचपन में ही इनकी माता का देहांत हो गया। जरूरतमंत लोगों की हर स्थिति में मदद करना इनके व्यक्तित्व में शुमार था। वे ईश्वर की अराधना केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के लिए करते थे। लेखराज बचपन से इतने सौम्य और असाधारण थे कि इन्हें लोग प्यार से दादा कहते थे। दादा बड़े होकर हीरे-जवाहरातों के व्यापार में लग गए। लेकिन इनके जीवन में परिवर्तन साठ साल की उम्र में आया। बाबा को वाराणसी में अपने मित्र के घर एक रात ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। भगवान शिव ने इन्हें नई दुनिया बनाने के महान कार्य का दायित्व सौपा। इस दिव्य दृश्य ने उनके जीवन को बदल कर रख दिया तथा वैराग्य को अपना लिया। बाबा ने अपनी चल-अचल संपत्ति बेचकर एक ट्रस्ट की स्थापना की, जिसमें माताओं-बहनों को आगे रख समाज के बदलाव की प्रक्रिया का आगाज किया। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद यह संस्था राजस्थान के माउण्ट आबू आई तथा पूरे देश-विदेश में मानवीय सेवाओं का दौर प्रारंभ हुआ। इस यात्रा में सभी धर्म-संप्रदाय के लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। बाबा ने अपनी संपूर्णता को प्राप्त करते हुए 18 जनवरी, 1969 को अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। बाबा स्थूल रुप से तो हमारे बीच नहीं है परंतु उनकी सूक्ष्म उपस्थिति आज भी हमें काल की तरफ बढ़ रही दुनिया में नई दुनिया की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर रही है।
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