Saturday, 29 October 2011

परमात्मा सर्व व्यापक नही है आत्माओं का लोक (परलोक अथवा ब्रह्मलोक) अलग है तो सदामुक्त परमात्मा को परलोक (ब्रह्मालोक) का वासी क्यों न माना जाय ? 6. जबकि भगवान के ये महावाक्य है कि यह मनुष्य सृष्टि एक उल्टे वृक्ष के समान है और मैं इसका अनादि-अविनाशी बीज हूँ जोकि ऊपर परमधाम का वासी हूँ, तब भी परमात्मा को सर्वव्यापी माना क्या ईश्वरीय मत का विरोध करना नहीं है ? 7. जैसे किसी मनुष्य को महात्मा कहने का यह अर्थ नही होता कि वह आत्मा अन्य आत्माओं से अधिक लम्बी-चौडी है बल्कि यही अर्थ होता है कि वह अन्य आत्माओं से पवित्रता, शान्ति, शक्ति आदि की दृष्टि से अधिक महान है, वैसे ही परमात्मा शब्द के बारे में ऐसे क्यों न माना जाय कि इसका अर्थ सबसे लम्बी-चौडी आत्मा या सर्वव्यापक आत्मा नहीं है बल्कि इसका यह अर्थ है कि वह ज्ञान, शान्ति, शक्ति तथा ईश्वरीय गुणों आदि की दृष्घिट से सर्व महान आत्मा है ? 8. क्या परमात्मा को चोर, डाकू, सॉंप, मगरमच्छ, उल्लू, कुत्ते, गधे आदि-आदि में व्यापक मानना गोया परमपिता की ग्लानि करना नहीं है ? अब परमपिता परमात्मा शिव क्या समझा रहे हैं ? अब परमात्मा कहते हैं - वत्सों, मैं सर्व में व्यापक नहीं हूँ बल्कि सर्व का परमपिता हूँ । मैं अव्यक्त मूर्त अर्थात्‌ प्रकाशस्वरुप हूँ । मेरा दिव्य रुप ज्योति बिन्दु है । मेरे उस रुप की बडी प्रतिमा भारत में शिवलिंग के नाम से पूजी जाती है । मेरे उसी रुप का एक प्रतीक दीप-शाखा भी है, इसलिए मन्दिरों में दीपक भी जगाये जाते हैं । मेरे अविनाशी ज्योति बिन्दु रुप का दिव्य चक्षु द्वारा साक्षात्कार भी किया जा सकता है । अत: मुझे कण-कण में, जल-थल में सब में व्यापक मानना महान भूल करना है क्योंकि वास्तव में सुर्य और तारागण के भी पार जो ज्योतिलोक, ब्रह्मलोक अथवा परलोक है, वही मेरा परमधाम है । वत्सो, लोहे मे जब अग्नि व्यापक होती है तो आप लोहे में अग्नी के गुण गर्मी का अनुभव कर सकते हैं । अत: यदि लोहो में अग्नि की तरह, मैं भी सर्व में व्यापक होता तो आपको मेरे भी आनन्द, शान्ति, प्रेम, पवित्रता, शक्ति आदि गुणों का सर्व में अनुभव हो पाता । परन्तु आप देखते है कि आज इस मनुष्य सृष्टि में तो


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