Saturday, 29 October 2011

आत्मा, परमात्मा का अंश नही है बल्कि वंशज है भूल गये है और इससे संसार में अमर्यादा फैल गई है और सभी में भ्रातृभाव की बजाय द्वेष तथा द्वैत आ गया है । वास्तव में तो सब आत्माएँ अलग-अलग गुण कर्म स्वभाव वाली है और आपस में भाई-भाई है और सबका पिता एक मैं परमात्मा शिव ही हूँ । मुझ पिता की स्मृति में रहने के फलस्वरुप ही यह सृष्टि ऐसी सतोप्रधान और सतयुगी, दैवी मर्यादा वाली बन सकती है कि जिसमें शेर और गाय में भी द्वेष न हो । वत्सो, ज्ञान का अर्थ आत्मा और परमात्मा को एक मानना नही है बल्कि मुझ परमात्मा का अन्य आत्माओं से जो महान अन्तर है, उसे जानना और मुझ परमात्मा के दिव्य रुप, दिव्य धाम, दिव्य कर्तव्य, दिव्य सम्बन्ध आदि को जानकर मेरी दिव्य स्मृति में रहना है आत्मा को ही परमात्मा मानना एक तो वास्तविकता के विरूद्ध है क्योंकि किसी भी आत्मा में परमात्मा जैसी सामर्थ्य अथवा योग्यता तो है ही नही और दुसरे, आत्मा को सो परमात्मा मानने से ज्ञान-ध्यान, योग आदि सभी नष्ट हो गये है क्योंकि जो स्वयं से भिन्न किसी परमसत्ता को भगवान नही मानता, वह ध्यान किसका करेगा, योग किससे लगायेगा मन को किसकी स्मृति में टिकायेगा ? वत्सो, आत्मा न तो कभी भी परमात्मा थी, न वह कभी परमात्मा बन सकती है । आत्मा के परमात्मा न बन सकने की बात तो अलग रही, आत्माओं की महानता को तो आपस में भी एक-दूसरे से अन्तर सदा बना ही रहता है । अत: मैं आत्मा ही सो परमात्मा हूँ (सोहम्‌) ऐसा न मान कर यह निश्चि करना चाहिए कि मैं पहले शुद्ध आत्मा था और अब पुन: मुझे उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए परमात्मा से योग लगाना चाहिए ।


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