Friday, 28 October 2011

जो सुखी है वही दूसरे को सुखी बना सकता है। १ २. संसार में आये हो - ऐसी चातुरी से काम लो कि मल - मूत्र के भाँड में न आना पड़े। २ ३. मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है। ५ ४. उदर - पोषण में ही चातुरी समाप्त मत कर दो। ७ ५. वासनाओं की पूर्ति के पीछे मत पड़ो। ९ ६. जो भाग्य में है वह आयेगा अवश्य। १० ७. मनुष्य का शरीर मिला है, इसे व्यर्थ मत जाने दो। १२ ८. कर्म से भी मोक्ष सम्भव है। १४ ९. जीना उन्हीं का सार्थक है जो जीकर कुछ आगे के लियै बनायें। १६ १०. मृत्युकाल की पीड़ा। १८ ११. अन्त न बिगड़ने पाये। १९ १२. जिसका वियोग निश्चितहै उनको सुख का साधन बनाना भारी भूल। २० १३. शत्रु - मित्र से सम्भाव रखो। २६ १४. दुष्कर्म हो जाय तो कह दो - सत्कर्म करो तो छिपाओ। २८ १५. ऐसा नहीं कि पाप करते जाओ, भगवान् को भजते जाओ। २९ १६. भगवान् की सेवा करना चाहते हो तो हनुमान जी का आदर्श पालन करो। ३० १७. शक्ति का अपव्यय और बुद्धि का दुरुपयोग न करो। ३२ १८. जैसा देव वैसी पूजा। ३३ १९. झूठे आदमी को कभी शान्ति नहीं मिल सकती, चाहे वह कुवेर के (६) समान धनवान हो जाय। ३४ २०. दूसरे में नहीं, अपने में दोष देखो। ३९ २१. संसार प्रेम का पात्र नहीं, उसमें मन को फर्साओगे तो धोखा खोओगे। ३७ २२. पुरस्त्कार के योग्य पुरस्कार और तिरस्कार के योग्य का तिरस्कार करो। ३८ २३. जो आया है सो जायगा। ४० २४. भगवान् के भजन में लाभ ही लाभ है। ४१ २५. परमात्मा विश्वम्भर है। ४३ २६. जितने दिन जीना है शन्ति से जियो। ४४ २७. शक्ति प्राप्त करो। ४५ २८. साकार - निराकार के झगड़े में न पड़ो। ४७ २९. जैस काछो वैसा नाचो। ४८ ३०. प्रेम परमात्मा में और प्रेम की छाया संसार में रखो। ५० ३१. देवत्व से मनुष्यत्व श्रेष्ठ है। ५१ ३२. उसकी चिन्ता करो जो सब चिन्ताओं से मुक्त कर सकता है। ५३ ३३. जिसे भले - बरे का न्याय करना है वह तुम्हारे सब कार्यों को देख रहा है। ५४ ३४. चार वृत्तियों में ही रहो, लोक - परलोक दोनों बनेगा। ५६ ३५. सिध्यियों के चक्कर में ठगाये मत जाओ। ५७ ३६. जीव - ब्रह्म की एकता। ६१ ३७. तृष्णा के त्याग और ईश्वराराधन से ही सुख सम्भव। ६९ ३८. योजनायें बना - बनाकर अपने जीवन को उलझन में न डालो। ६५ ३९. भगवान का अवतार किस लिए होता है। ६७ ४०. मन के थोर्ड़े सहयोग से ही व्यवहार चल सकता है। ६८ ४१. लोक - परलोक में सर्वत्र सुख शान्ति चाहते हो तो सर्वशक्तिमान परमात्मा की शरण लो। ७२ (७) ४२. मन को संसार में कोई नहीं चाहता। ७५ ४३. पतन से बचना चाहते हो तो पाप से बचो और पुण्य को बढ़ाओ। ७८ ४४. मन को संसार में लगाओ, पर इतना ही कि परमार्थ न बिगड़े ७९ ४५. भगवान का भक्त कभी दुखी नहीं रह सकता। ८० ४६. कुटुम्बयों की अश्रद्धा होने के पहिले ही भगवान् की ओर झुक जाओ। ८१ ४७. भगवान की प्रतिज्ञा अपने भक्तों के लिए - " मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ। ८२ ४८. रात्रि में सोने से पहिले कुछ जप और ध्यान अवश्य करें। ८४ ४९. इन्द्रियों के भोग - विलास में जो निमग्न रहता है वह किसी काम का नहीं रह जाता। ८५ ५०. मन की प्रवृत्ति जिधर होती है वह स्वयं रास्ता निकाल लेता है। ८६ ५१. राग ही सर्वानर्थ का मूल। ८७ ५२. विध्नों के भय से मार्ग नहीं छोड़ना चाहिये। ८८ ५३. प्रबृत्ति को अशुभ से रोक कर शुभ में लगाना - यही मुख्य पुरुषार्थ है। ५४. परमात्त्मा से विमुख हो रहे हो - इसी से नाना प्रकार की विपत्तियाँ आ रही हैं। ९१ ५५ . प्रारब्ध से पुरुषार्थ बलवान है। ९३ ५६. त्यागी और उदार तो बहुत हैं - हो सके तो रागी और कृपण बनने का प्रयत्न करो। ९५ ५७. एक भगवान् को मजबूती से पकड़ो तो अनेक की खुशामद नहीं करनी पड़ेगी। ९६ ५८. संसार जैसा है वैसा ही पड़ा रहेगा - जब तक यहाँ हो अपना काम बना लो। ९८ (८) ५९. मनुष्य-जन्म दुर्लभ है, इसे सार्थक बनाओ। ९९ ६०. शक्ति चाहते हो तो शक्ति के केन्द्र से सम्बन्ध जोड़ो। १०१ ६१. जिनके लिए हाव - हाव करके मारे - मारे फिरते हो वे ही जबाब देते हैं। १०२ ६२. हाली में गाली व रंग - गुलाल क्यों। १०४ ६३. महाअसुर हिरण्यकश्यपु के पुत्र प्रहलाद क्यों भक्त उत्पन्न हुये। १०६ ६४. दीन बन कर दीनदयालु की दयालुता का लाभ उठाओ। १११ ६५. स्वधर्म पालन और भगवान का स्मरण सदा करते रहो। ११३ ६६. भगवचिन्तन और आहार शुद्धि। ११६ ६७. गर्भवास में फिर न आना पड़े तभो मनुष्य जन्म सार्थक। ११८ ६८. सर्बत्र भगवान का भाव ही भक्तों का लक्षण। १२२ ६९. गुरु बदलने में कोई पाप नहीं होता। १२४ ७०. जगत भर का ज्ञान प्राप्त कर लो, पर यदि अपने को न ज्ञान पाए तो अज्ञानी ही रहोगे। १२५ ७१. तुम तो सच्चिदाननद स्वरूप परमात्मा के अंश हो - अपने को भूलकार ही दुखसागर में डूब रहे हो। १२६ ७२. भगवान का नाम जपो, परन्तु विधि के साथ। १२८ ७३. ॐकार की जप - स्त्रियों के लिए उसका निषेध। १२९ ७४. क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्री जाति के लिए गुरुत्व नहीं। १३२ ७५. स्त्री - समाज का केवल पति - परायण ही रहकर कल्याण। १३४ ७६. भगवान् के आज्ञारूप वेद - शास्त्र के अनुसार चलिए। १३६ ७७. सदगुरु किसे कहते हैं। १३७ ७८. जगदगुरु किसे कहते हैं। १४२ ७९. सत्संग की बातों को मनन करना आवश्यक। १४५ ८०. घर में रहते हुये महात्मा बनो। १४७ ८१. धन - संग्रह से अधिक प्रयत्न बुद्धि शुद्ध करने के लिए करो। १४९ ८२. बिना ज्ञान के न भक्ति ही हो सकती है और न मोक्ष ही। १४९ (९) ८३. अच्छे कार्यों को जल्दी करो। १५२ ८४. भगवान से लाभ उठाना चाहते हो तो उपासना करके उन्हें एक - देश में प्रकट करो। १५३ ८५. सुख चाहते हो तो सुख - सागर की ओर चलो। १५४ ८६. भगवान का भजन अवश्य करो - मन लगे या न लगे। १५६ ८७. ज्ञान से भगवान के दर्शन का भाव ठीक है - या प्रत्यक्ष दर्शन। १५७ ८८. भक्ति और ज्ञान - निराकार और साकार - के झगडे में न पड़ो। १५८ ८९. अपने किये का फल तो भोगना ही पड़ेगा। १६६ ९०. जैसा मन हो वैसा ही कहो और वैसा ही करो। १६७ ९१. मन को संसार में अधिक न फँसाकर भगवान की तरफ लगाओ। १६९ ९२. भगवान के पास पहुँचना है तो उनके नाम का सहारा लो। १७३ ९३. दुःख की प्रातिभासिक सत्ता है, वास्तविक नहीं। १७५ ९४. संसार शोक - सागर ही है, आत्मज्ञानी ही उसे पार कर सकता है। १८१ ९५. भवसागर से पार होने का प्रयत्न करो। नौकारूढ़ होकर डूब गये तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा। १८३ ९६. सिवाय परमात्मा के कोई सहायक नहीं। १८७ ९७. जाति - पांति कल्याण कारक नहीं - भगवान् के भजन और स्वधर्म पालन से कल्याण होगा। १८९ ९८. दुर्जन के लिए दुर्जन बनना और निन्दक के लिये स्वयं निन्दक बन जाना उचित नहीं। १९१ ९९. त्याग और ग्रहण से मुक्त होकर स्वरूपानन्द में निमग्न हो रही। १९४ १००. अविवेक से मनुष्य बहुत कष्ट उठाते हैं। १९७ १०१. स्वार्थ प्रबल है। १९९ १०२. भौतिकवाद सुख - शान्ति देने में समर्थ नहीं। २०० १०३. उदर - पोषण के लिए अपने भाग्य पर विश्वास रखो। २०२ १०४. जितना हो सके शुभ कार्यों का सम्पादन करो। २०४ १०५. सतर्क रह कर जीवन का सदुपयोग करो। २०८ (१०) १०६. विचार पूर्वक प्रवृत्ति बनाने से ही मन स्मार्ग की ओर जाता। २११ १०७. जो अपना लक्ष्य भूल गया, वह पथ - भ्रष्ट हो ही जायगा। २१४ १०८. जों भगवान की ओर झुका है उसे किसी वस्तु की कभी नहीं। २१६ - : ० : -


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