Friday 28 October 2011

मैं क्रोध, मान, माया और लोभ-इस चांडाल-चौकडी से पीडित हूँ, इससे अपना दामन कैसे छुडाऊँ ? मैं क्रोध से दु:खी हूँ, क्रोध को कैसे जीतूं ? ये सब जीवंत-प्रश्न हैं, जीवन से जुडी जिज्ञासाएं है, ज्वलंत समस्याएं हैं, जिनका समाधान जीवन की अनिवार्य घटना है और जहां तक मैं समझता हूँ, ये समस्याएं किसी एक व्यक्ति विशेष की नहीं, अपितु जन-जन की, जन-जन के जीवन की समस्याएं हैं । हर आदमी क्रोध से पीडित है, परेशान है, क्लांत है, दु:खी है । क्रोध को कैसे जीतें ? इस पर अपने कुछ विचार व्यक्त करुं - इससे पहले यह समझ लेना ज्यादा बेहतर होगा कि क्रोध आखिर है क्या ? क्रोध से क्या हानियां हैं ? क्रोध आता क्यों है ? क्रोध क्या है ? क्रोध एक विष है । क्रोध एक विषधर सर्प है, जिसके डसने से आत्मा अपने वास्तविक स्वरुप को भूल जाती है । क्रोध एक विक्षिप्तता है । क्रोध एक रोग है । क्रोध एक दु:ख की अन्तहीन कथा है । क्रोध एक तात्कालिक पागलपन है । क्रोध एक क्षय रोग है । क्रोध एक असंतुलन है । क्रोध एक मनोविकार है । क्रोध भयावह है । क्रोध भयंकर है । क्रोध भयास्पद है, क्रोध कुरुप है । क्रोध भद्दा है । क्रोध अंधा है । क्रोध बहरा है । क्रोध गुंगा है । क्रोध विकलांग है । नरक का द्वार क्रोध है । दु:ख का भंडार क्रोध है । अनर्थों का घर क्रोध है । पीडा का पर्याय क्रोध है । विवेक का दुश्मन क्रोध है । क्रोध से क्या हानियां है ? क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है । क्रोध जब भी आता है, विवेक को नष्ट करके आता है । क्रोध होश की हत्त्या करके आता है । होश में व्यक्ति क्रोध नहीं करता । होश में क्रोध करना संभव ही नहीं है । क्रोध बेहोशी में ही संभव है । क्रोध का अर्थ ही बेहोश होना है । क्रोध पहला प्रहार विवेक पर करता है, होश पर करता है और होश गया कि क्रोध व्यक्ति को पागल बना देता है । विवेक गया कि क्रोध व्यक्ति को अंधा बना देता है । वह भूल जाता है कि वह क्या कर रहा है, क्या करने जा रहा है और इसका परिणाम क्या होगा ? यद्यपि आँखे हैं, लेकिन अब वह देख नहीं सकता । कान हैं, लेकिन अब वह सून नहीं सकता । मन है, लेकिन अब वह विचार नहीं कर सकता । क्यों ? क्योंकि क्रोध समझदारी को बाहर निकालकर बुद्धि के दरवाजे की चिटकनी लगा देता है, मनुष्य को विचार-शून्य बना देता है, विवेक शून्य कर देता है । एक व्यक्ति शाम को दुकान से घर आया । पॉंच हजार रुपये पत्नी को दिए । पत्नी भोजन बना रही थी, रुपयों को वहीं चुल्हे के पास रख दिया । सर्दी के दिन थे, पास में उसका दो वर्ष का बच्चा बैठा था । मॉं काम से बाहर गई, इतनें में बच्चा उठा और रुपयों की गड्डी उठाकर जलते चुल्हे में डाल दी । अग्नि तेज जलने लगी । बच्चा खुश हो रहा था कि आग की लपटें कितनी तेज उठ रहीं है ! इतने में मॉं आ गई । उसने जब यह सब नजारा देखा तो उसे समझने में देर न लगी । क्रोध ने उसे अंधा बना दिया । क्रोध का भूत उसके मन-मस्तिष्क पर सवार हो गया, वह अपना होश-हवाश खो बैठी । फिर क्या था, आव देखा न ताव, अपने सुकुमार बच्चे को उठाया और जलते हुए चूल्हे में झोंक दिया, बेटा जलकर राख हो गया । इकलौता बेटा था उसका, जिसे क्रोध खा गया । बुढापे का सहारा था, जिसे क्रोध ने छीन लिया । क्षणभर के क्रोध ने जीवन-भर का दु:ख पैदा कर दिया । पलभर का असंतुलन जीवन-भर के लिए अभिशाप बन गया ।


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