Saturday, 4 April 2020

परमपिता परमात्मा का सत्य ज्ञान परमात्मा शिव ब्रह्माकुमारीज के द्वारा सत्य ज्ञान दे रहे है


राजयोग प्रदर्शनी


मनुष्य अपने जीवन में कई पहेलियाँ हल करते है और उसके फलस्वरूप इनाम पते है | परन्तु इस छोटी-सी पहेली का हल कोई नहीं जानता कि – “मैं कौन हूँ?” यों तो हर-एक मनुष्य सारा दिन “मैं...मैं ...” कहता ही रहता है, परन्तु यदि उससे पूछा जाय कि “मैं” कहने वाला कौन है? तो वह कहेगा कि--- “मैं कृष्णचन्द हूँ... या ‘मैं लालचन्द हूँ” | परन्तु सोचा जाय तो वास्तव में यह तो शरीर का नाम है, शरीर तो ‘मेरा’ है, ‘मैं’ तो शरीर से अलग हूँ | बस, इस छोटी-सी पहेली का प्रेक्टिकल हल न जानने के कारण, अर्थात स्वयं को न जानने के कारण, आज सभी मनुष्य देह-अभिमानी है और सभी काम, क्रोधादि विकारों के वश है तथा दुखी है |
अब परमपिता परमात्मा कहते है कि—“आज मनुष्य में घमण्ड तो इतना है कि वह समझता है कि—“मैं सेठ हूँ, स्वामी हूँ, अफसर हूँ....,” परन्तु उस में अज्ञान इतना है कि वह स्वयं को भी नहीं जानता | “मैं कौन हूँ, यह सृष्टि रूपी खेल आदि से अन्त तक कैसे बना हुआ है, मैं इस में कहाँ से आया, कब आया, कैसे आया, कैसे सुख- शान्ति का राज्य गंवाया तथा परमप्रिय परमपिता परमात्मा (इस सृष्टि के रचयिता) कौन है?” इन रहस्यों को कोई भी नहीं जानता | अब जीवन कि इस पहेली (Puzzle of life) को फिर से जानकर मनुष्य देही-अभिमानी बन सकता है और फिर उसके फलस्वरूप नर को श्री नारायण और नारी को श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति होती है और मनुष्य को मुक्ति तथा जीवनमुक्ति मिल जाती है | वह सम्पूर्ण पवित्रता, सुख एवं शान्ति को पा लेता है |
जब कोई मनुष्य दुखी और अशान्त होता है तो वह प्रभु ही से पुकार कर सकता है- “हे दुःख हर्ता, सुख-कर्ता, शान्ति-दाता प्रभु, मुझे शान्ति दो |” विकारों के वशीभूत हुआ-हुआ मुशी पवित्रता के लिए भी परमात्मा की ही आरती करते हुए कहता है- “विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा !” अथवा “हे प्रभु जी, हम सब को शुद्धताई दीजिए, दूर करके हर बुराई को भलाई दीजिए |” परन्तु परमपिता परमात्मा विकारों तथा बुराइयों को दूर करने के लिए जो ईश्वरीय ज्ञान देते है तथा जो सहज राजयोग सिखाते है, प्राय: मनुष्य उससे अपरिचित है और वे इनको व्यवहारिक रूप में धारण भी नहीं करते | परमपिता परमात्मा तो हमारा पथ-प्रदर्शन करते है और हमे सहायता भी देते है परन्तु पुरुषार्थ तो हमे स्वत: ही करना होगा, तभी तो हम जीवन में सच्चा सुख तथा सच्ची शान्ति प्राप्त करेंगे और श्रेष्ठाचारी बनेगे |
आगे परमपिता परमात्मा द्वारा उद्घाटित ज्ञान एवं सहज राजयोग अ पथ प्रशस्त किया गया है इसे चित्र में भी अंकित क्या गया है तथा साथ-साथ हर चित्र की लिखित व्याख्या भी दी गयी है ताकि ये रहस्य बुद्धिमय हो जायें | इन्हें पढ़ने से आपको बहुत-से नये ज्ञान-रत्न मिलेंगे | अब प्रैक्टिकल रीति से राजयोग का अभ्यास सीखने तथा जीवन दिव्य बनाने के लिए आप इस प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विधालय के किसी भी सेवा-केन्द्र पर पधार कर नि:शुल्क ही लाभ उठावें | 


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+  आत्मा क्या है और मन क्या है ?

आत्मा क्या है और मन क्या है ?
अपने सारे दिन की बातचीत में मनुष्य प्रतिदिन न जाने कितनी बार ‘ मैं ’ शब्द का प्रयोग करता है | परन्तु यह एक आश्चर्य की बात है कि प्रतिदिन ‘ मैं ’ और ‘ मेरा ’ शब्द का अनेकानेक बार प्रयोग करने पर भी मनुष्य यथार्थ रूप में यह नहीं जानता कि ‘ मैं ’ कहने वाले सत्ता का स्वरूप क्या है, अर्थात ‘ मैं’ शब्द जिस वस्तु का सूचक है, वह क्या है ? आज मनुष्य ने साइंस द्वारा बड़ी-बड़ी शक्तिशाली चीजें तो बना डाली है, उसने संसार की अनेक पहेलियों का उत्तर भी जान लिया है और वह अन्य अनेक जटिल समस्याओं का हल ढूंढ निकलने में खूब लगा हुआ है, परन्तु ‘ मैं ’ कहने वाला कौन है, इसके बारे में वह सत्यता को नहीं जानता अर्थात वह स्वयं को नहीं पहचानता | आज किसी मनुष्य से पूछा जाये कि- “आप कौन है ?” तो वह झट अपने शरीर का नाम बता देगा अथवा जो धंधा वह करता है वह उसका नाम बता देगा |
वास्तव में ‘मैं’ शब्द शरीर से भिन्न चेतन सत्ता ‘आत्मा’ का सूचक है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है | मनुष्य (जीवात्मा) आत्मा और शरीर को मिला कर बनता है | जैसे शरीर पाँच तत्वों (जल, वायु, अग्नि, आकाश, और पृथ्वी) से बना हुआ होता है वैसे ही आत्मा मन, बुद्धि और संस्कारमय होती है | आत्मा में ही विचार करने और निर्णय करने की शक्ति होती है तथा वह जैसा कर्म करती है उसी के अनुसार उसके संस्कार बनते है |
आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिन्दु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है | जैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिन्दु-सा दिखाई देता है, वैसे ही दिव्य-दृष्टि द्वारा आत्मा भी एक तारे की तरह ही दिखाई देती है | इसीलिए एक प्रसिद्ध पद में कहा गया है- “भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा, गरीबां नूं साहिबा लगदा ए प्यारा |” आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यही हाथ लगता है | जब वह यश कहता है कि मेरे तो भाग्य खोटे है, तब भी वह यही हाथ लगता है | आत्मा का यहाँ वास होने के कारण ही भक्त-लोगों में यहाँ ही बिन्दी अथवा तिलक लगाने की प्रथा है | यहाँ आत्मा का सम्बन्ध मस्तिष्क से जुड़ा है और मस्तिष्क का सम्बन्ध सरे शरीर में फैले ज्ञान-तन्तुओं से है | आत्मा ही में पहले संकल्प उठता है और फिर मस्तिष्क तथा तन्तुओं द्वारा व्यक्त होता है | आत्मा ही शान्ति अथवा दुःख का अनुभव करती तथा निर्णय करती है और उसी में संस्कार रहते है | अत: मन और बुद्धि आत्म से अलग नहीं है | परन्तु आज आत्मा स्वयं को भूलकर देह- स्त्री, पुरुष, बूढ़ा जवान इत्यादि मान बैठी है | यह देह-अभिमान ही दुःख का कारण है |
उपरोक्त रहस्य को मोटर के ड्राईवर के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया गया है | शरीर मोटर के समान है तथा आत्मा इसका ड्राईवर है, अर्थात जैसे ड्राईवर मोटर का नियंत्रण करता है, उसी प्रकार आत्मा शरीर का नियंत्रण करती है | आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण है, जैसे ड्राईवर के बिना मोटर | अत: परमपिता परमात्मा कहते है कि अपने आपको पहचानने से ही मनुष्य इस शरीर रूपी मोटर  को चला सकता है और अपने लक्ष्य (गन्तव्य स्थान) पर पहुंच सकता है | अन्यथा जैसे कि ड्राईवर कार चलाने में निपुण न होने के कारण दुर्घटना (Accident) का शिकार बन जाता है और कार उसके यात्रियों को भी चोट लगती है, इसी प्रकार जिस मनुष्य को अपनी पहचान नहीं है वह स्वयं तो दुखी और अशान्त होता ही है, साथ में अपने सम्पर्क में आने वाले मित्र-सम्बन्धियों को भी दुखी व अशान्त बना देता है | अत: सच्चे सुख व सच्ची शान्ति के लिए स्वयं को जानना अति आवश्यक है |
+  तीन लोक कौन से है और शिव का धाम कौन सा है ?

तीन लोक कौन से है और शिव का धाम कौन सा है ?
मनुष्य आत्माएं मुक्ति अथवा पूर्ण शान्ति की शुभ इच्छा तो करती है परन्तु उन्हें यह मालूम नहीं है कि मुक्तिधाम अथवा शान्तिधाम है कहाँ ? इसी प्रकार, परमप्रिय परमात्मा शिव से मनुष्यात्माएं मिलना तो चाहती है और उसी याद भी करती है परन्तु उन्हें मालूम नहीं है कि वह पवित्र धाम कहाँ है जहाँ से हम सभी मनुष्यात्माएं सृष्टि रूपी रंगमंच पर आई है, उस प्यारे देश को सभी भूल गई है और और वापिस भी नहीं जा सकती !!
१. साकार मनुष्य लोक - सामने चित्र में दिखाया गया है कि एक है यह साकार ‘मनुष्य लोक’ जिसमे इस समय हम है | इसमें सभी आत्माएं हड्डी- मांसादि का स्थूल शरीर लेकर कर्म करती है और उसका फल सुख- दुःख के रूप में भोगती है तथा जन्म-मरण के चक्कर में भी आती है | इस लोक में संकल्प, ध्वनि और कर्म तीनों है | इसे ही ‘पाँच तत्व की सृष्टि’ अथवा ‘कर्म क्षेत्र’ भी कहते है | यह सृष्टि आकाश तत्व के अंश-मात्र में है | इसे सामने त्रिलोक के चित्र में उल्टे वृक्ष के रूप में दिखायागया है क्योंकि इसके बीज रूप परमात्मा शिव, जो कि जन्म-मरण से न्यारे है, ऊपर रहते है |
२. सूक्ष्म देवताओं का लोक – इस मनुष्य-लोक के सूर्य तथा तारागण के पार आकाश तत्व के भी पार एक सूक्ष्म लोक है जहाँ प्रकाश ही प्रकाश है | उस प्रकाश के अंश-मात्र में ब्रह्मा, विष्णु तथा महदेव शंकर की अलग-अलग पुरियां है | इन्स देवताओं के शरीर हड्डी- मांसादि के नहीं बल्कि प्रकाश के है | इन्हें दिव्य-चक्षु द्वारा ही देखा जा सकता है | यहाँ दुःख अथवा अशांति नहीं होती | यहाँ संकल्प तो होते है और क्रियाएँ भी होती है और बातचीत भी होती है परन्तु आवाज नहीं होती |
३. ब्रह्मलोक और परलोक- इन पुरियों के भी पार एक और लिक है जिसे ‘ब्रह्मलोक’, ‘परलोक’, ‘निर्वाण धाम’, ‘मुक्तिधाम’, ‘शांतिधाम’, ‘शिवलोक’ इत्यादि नामों से याद किया जाता है | इसमें सुनहरे-लाल रंग का प्रकाश फैला हुआ है जिसे ही ‘ब्रह्म तत्व’, ‘छठा तत्व’, अथवा ‘महत्त्व’ कहा जा सकता है | इसके अंशमात्र ही में ज्योतिर्बिंदु आत्माएं मुक्ति की अवस्था में रहती है | यहाँ हरेक धर्म की आत्माओं के संस्थान (Section) है |
उन सभी के ऊपर, सदा मुक्त, चैतन्य ज्योति बिन्दु रूप परमात्मा ‘सदाशिव’ का निवास स्थान है | इस लोक में मनुष्यात्माएं कल्प के अन्त में, सृष्टि का महाविनाश होने के बाद अपने-अपने कर्मो का फल भोगकर तथा पवित्र होकर ही जाती है | यहाँ मनुष्यात्माएं देह-बन्धन, कर्म-बन्धन तथा जन्म-मरण से रहित होती है | यहाँ न संकल्प है, न वचन और न कर्म | इस लोक में परमपिता परमात्मा शिव के सिवाय अन्य कोई ‘गुरु’ इत्यादि नहीं ले जा सकता | इस लोक में जाना ही अमरनाथ, रामेश्वरम अथवा विश्वेश्वर नाथ की सच्ची यात्रा करना है, क्योंकि अमरनाथ परमात्मा शिव यही रहते है |
+  निराकार परम पिता परमात्मा और उनके दिव्य गुण

निराकार परम पिता परमात्मा और उनके दिव्य गुण
प्राय: सभी मनुष्य परमात्मा को ‘हे पिता’, ‘हे दुखहर्ता और सुखकर्ता प्रभु’, (O! Heavenly God-Father) इत्यादि सम्बन्ध-सूचको शब्दों से याद करते है | परन्तु यह कितने आश्चर्य की बात है कि जिसे वे ‘पिता’ कहकर पुकारते है उसका सत्य और स्पष्ट परिचय उन्हें नहीं है और उसके साथ उनका अच्छी रीती स्नेह और सम्बन्ध भी नहीं है | परिचय और स्नेह न होने के कारण परमात्मा को याद करते समय भी उनका मन एक ठिकाने पर नहीं टिकता | इसलिए, उन्हें परमपिता परमात्मा से शान्ति तथा सुख का जो जन्म-सिद्ध अधिकार प्राप्त होना चाहिए वह प्राप्त नहीं होता | वे न तो परमपिता परमात्मा के मधुर मिलन का सच्चा सुख अनुभव कर सकते है, न उससे लाईट (light प्रकाश) और माईट (Might शक्ति) ही प्राप्त कर सकते है और न ही उनके संस्कारों तथा जीवन में कोई विशेष परिवर्तन ही आ पाता है | इसलिए हम यहाँ उस परम प्यारे परमपिता परमात्मा का संक्षिप्त परिचय दे रहे है जो कि स्वयं उन्होंने ही लोक-कल्याणार्थ हमे समझाया है और अनुभव कराया है और अब भी करा रहे है |
परमपिता परमात्मा का दिव्य नाम और उनकी महिमा
परमपिता परमात्मा का नाम ‘शिव’ है | ‘शिव’ का अर्थ ‘कल्याणकारी’ है | परमपिता परमात्मा शिव ही ज्ञान के सागर, शान्ति के सागर, आनन्द ए सागर और प्रेम के सागर है | वह ही पतितों को पावन करने वाले, मनुष्यमात्र को शांतिधाम तथा सुखधाम की राह दिखाने वाले (Guide), विकारों तथा काल के बन्धन से छुड़ाने वाले (Libberator) और सब प्राणियों पर रहम करने वाले (Merciful) है | मनुष्य मात्र को मुक्ति और जीवनमुक्ति का अथवा गति और सद्गति का वरदान देने वाले भी एक-मात्र वही है | वह दिव्य-बुद्धि के डाटा और दिव्य-दृष्टी के वरदाता भी है | मनुष्यात्माओ को ज्ञान रूपी सोम अथवा अमृत पिलाने तथा अमरपद का वरदान देने के कारण ‘सोमनाथ’ तथा ‘अमरनाथ’ इत्यादि नाम भी उन्ही के है | वह जन्म-मरण से सदा मुक्त, सदा एकरस, सदा जगती ज्योति, ‘सदा शिव’ है |
परमपिता परमात्मा का दिव्य-रूप
परमपिता परमात्मा का दिव्य-रूप एक ‘ज्योति बिन्दु’ के समान, दीये की लौ जैसा है | वह रूप अतिनिर्मल, स्वर्णमय लाल (Golden Red) और मन-मोहक है | उस दिव्य ज्योतिर्मय रूप को दिव्य-चक्षु द्वारा ही देखा जा सकता है और दिव्य-बुद्धि द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है | परमपिता परमात्मा के उस ‘ज्योति-बिन्दु’ रूप की प्रतिमाएं भारत में ‘शिव-लिंग’ नाम से पूजी जाती है और उनके अवतरण की याद में ‘महा शिवरात्रि’ भी मनाई जाती है |
‘निराकार’ का अर्थ
लगभग सभी धर्मों के अनुयायी परमात्मा को ‘निराकार’ (Incorporeal) मानते है | परन्तु इस शब्द से वे यह अर्थ लेते है कि परमात्मा का कोई भी आकार (रूप) नहीं है | अब परमपिता परमात्मा शिव कहते है कि ऐसा मानना भूल है | वास्तव में ‘निराकार’ का अर्थ है कि परमपिता ‘साकार’ नहीं है, अर्थात न तो उनका मनुष्यों जैसा स्थूल-शारीरिक आकार है और न देवताओं-जैसा सूक्ष्म शारीरिक आकार है बल्कि उनका रूप अशरीरी है और ज्योति-बिन्दु के समान है | ‘बिन्दु’ को तो ‘निराकार’ ही कहेंगे | अत: यह एक आश्चर्य जनक बात है कि परमपिता परमात्मा है तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म, एक ज्योति-कण है परन्तु आज लोग प्राय: कहते है कि वह कण-कण में है |
+  सर्व आत्माओं का पिता परमात्मा एक है और निराकार है
+  परमपिता परमात्मा और उनके दिव्य कर्तव्य

परमपिता परमात्मा और उनके दिव्य कर्तव्य
सामने परमपिता परमात्मा ज्योति-बिन्दु शिव का जो चित्र दिया गया है, उस द्वारा समझाया गया है कि कलियुग के अन्त में धर्म-ग्लानी अथवा अज्ञान-रात्रि के समय, शिव सृष्टि का कल्याण करने के लिए सबसे पहले तीन सूक्ष्म देवता ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को रचते है और इस कारण शिव ‘त्रिमूर्ति’ कहलाते है | तीन देवताओं की रचना करने के बाद वह स्वयं इस मनुष्य-लोक में एक साधारण एवं वृद्ध भक्त के तन में अवतरित होते है, जिनका नाम वे ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ रखते है |
प्रजा पिता ब्रह्मा द्वारा ही परमात्मा शिव मनुष्यात्माओं को पिता, शिक्षक तथा सद्गुरु के रूप में मिलते है और सहज गीता ज्ञान तथा सहज राजयोग सिखा कर उनकी सद्गति करते है, अर्थात उन्हें जीवन-मुक्ति देते है |
शंकर द्वारा कलियुगी सृष्टि का महाविनाश
कलियुगी के अन्त में प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा सतयुगी दैवी सृष्टि की स्थपना के साथ परमपिता परमात्मा शिव पुरानी, आसुरी सृष्टि के महाविनाश की तैयारी भी शुरू करा देते है | परमात्मा शिव शंकर के द्वारा विज्ञान-गर्वित (Science-Proud) तथा विपरीत बुद्धि अमेरिकन लोगों तथा यूरोप-वासियों (यादवों) को प्रेर कर उन द्वारा ऐटम और हाइड्रोजन बम और मिसाइल (Missiles) तैयार कृते है, जिन्हें कि महभारत में ‘मुसल’ तथा ‘ब्रह्मास्त्र’ कहा गया है | इधर वे भारत में भी देह-अभिमानी, धर्म-भ्रष्ट तथा विपरीत बुद्धि वाले लोगों (जिन्हें महाभारत की भाषा में ‘कौरव’ कहा गया है) को पारस्परिक युद्ध (Civil War) के लिए प्रेरते हगे |
विष्णु द्वारा पालना
विष्णु की चार भुजाओं में से दो भुजाएँ श्री नारायण की और दो भुजाएँ श्री लक्ष्मी की प्रतीक है | ‘शंख’ उनका पवित्र वचन अथवा ज्ञान-घोष की निशानी है, ‘स्वदर्शन चक्र’ आत्मा (स्व) के तथा सृष्टि चक्र के ज्ञान का प्रतीक है, ‘कमल पुष्प’ संसार में रहते हुए अलिप्त तथा पवित्र रहने का सूचक है तथा ‘गदा’ माया पर, अर्थात पाँच विकारों पर विजय का चिन्ह है | अत: मनुष्यात्माओं के सामने विष्णु चतुर्भुज का लक्ष्य रखते हुए परमपिता परमात्मा शिव समझते है कि इन अलंकारों को धारण करने से अर्थात इनके रहस्य को अपने जीवन में उतरने से नर ‘श्री नारायण’ और नारी ‘श्री लक्ष्मी’ पद प्राप्त कर लेती है, अर्थात मनुष्य दो ताजों वाला ‘देवी या देवता’ पद पद लेता है | इन दो ताजों में से एक ताज तो प्रकाश का ताज अर्थात प्रभा-मंडल (Crown of Light) है जो कि पवित्रता व शान्ति का प्रतीक है और दूसरा रत्न-जडित सोने का ताज है जो सम्पति अथवा सुख का अथवा राज्य भाग्य का सूचक है |
इस प्रकार, परमपिता परमात्मा शिव सतयुगी तथा त्रेतायुगी पवित्र, देवी सृष्टि (स्वर्ग) की पलना के संस्कार भरते है, जिसके फल-स्वरूप ही सतयुग में श्री नारायण तथा श्री लक्ष्मी (जो कि पूर्व जन्म में प्रजापिता ब्रह्मा और सरस्वती थे) तथा सूर्यवंश के अन्य रजा प्रजा-पालन का कार्य करते है और त्रेतायुग में श्री सीता व श्री राम और अन्य चन्द्रवंशी रजा राज्य करते है |
मालुम रहे कि वर्तमान समय परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा तथा तीनों देवताओं द्वारा उपर्युक्त तीनो कर्तव्य करा रहे है | अब हमारा कर्तव्य है कि परमपिता परमात्मा शिव तथा प्रजापिता ब्रह्मा से अपना आत्मिक सम्बन्ध जोड़कर पवित्र बनने का पुरषार्थ कर्ण व सच्चे वैष्णव बनें | मुक्ति और जीवनमुक्ति के ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार के लिए पूरा पुरुषार्थ करें |
+  परमत्मा का दिव्य – अवतरण
+  शिव और शंकर में अन्तर
+  परमात्मा सर्व व्यापक नहीं है
+  सृष्टि रूपी उल्टा आ अदभुत वृक्ष और उसके बीजरूप परमात्मा
+  प्रभु मिलन का गुप्त युग—पुरुषोतम संगम युग
+  मनुष्य के 84 जन्मों की अद्-भुत कहानी 

मनुष्य के 84 जन्मों की अद्-भुत कहानी   
मनुष्यात्मा सारे कल्प में अधिक से अधिक कुल 84 जन्म लेती है, वह 84 लाख योनियों में पुनर्जन्म नहीं लेती | मनुष्यात्माओं के 84 जन्मों के चक्र को ही यहाँ 84 सीढ़ियों के रूप में चित्रित किया गया है | चूँकि प्रजापिता ब्रह्मा और जगदम्बा सरस्वती मनुष्य-समाज के आदि-पिता और आदि-माता है, इसलिए उनके 84 जन्मों का संक्षिप्त उल्लेख करने से अन्य मनुष्यात्माओं का भी उनके अन्तर्गत आ जायेगा | हम यह तो बता आये है कि ब्रह्मा और सरस्वती संगम युग में परमपिता शिव के ज्ञान और योग द्वारा सतयुग के आरम्भ में श्री नारायण और श्री लक्ष्मी पद पाते है |
सतयुग और त्रेतायुग में 21 जन्म पूज्य देव पद :
अब चित्र में दिखलाया गया है कि सतयुग के 1250 वर्षों में श्रीलक्ष्मी, श्रीनारायण 100 प्रतिशत सुख-शान्ति-सम्पन्न 8 जन्म लेते है | इसलिए भारत में 8 की संख्या शुभ मानी गई है और कई लोग केवल 8 मनको की माला सिमरते है तथा अष्ट देवताओं का पूजन भी करते है | पूज्य स्तिथि वाले इन 8 नारायणी जन्मों को यहाँ 8 सीढ़ियों के रूप में चित्रित किया गया है | फिर त्रेतायुग के 1250 वर्षों में वे 14 कला सम्पूर्ण सीता और रामचन्द्र के वंश में पूज्य राजा-रानी अथवा उच्च प्रजा के रूप में कुल 12 या 13 जन्म लेते है | इस प्रकार सतयुग और त्रेता के कुल 2500 वर्षों में वे सम्पूर्ण पवित्रता, सुख, शान्ति और स्वास्थ्य सम्पन्न 21 दैवी जन्म लेते है | इसलिए ही प्रसिद्ध है कि ज्ञान द्वारा मनुष्य के 21 जन्म अथवा 21 पीढ़ियां सुधर जाती है अथवा मनुष्य 21 पीढियों के लिए तर जाता है |
द्वापर और कलियुग में कुल 63 जन्म जीवन-बद्ध :
फिर सुख की प्रारब्ध समाप्त होने के बाद वे द्वापरयुग के आरम्भ में पुजारी स्तिथि को प्राप्त होते है | सबसे पहले तो निराकार परमपिता परमात्मा शिव की हीरे की प्रतिमा बनाकर अनन्य भावना से उसकी पूजा करते है | यहाँ चित्र में उन्हें एक पुजारी राजा के रूप में शिव-पूजा करते दिखाया गया है | धीरे-धीरे वे सूक्ष्म देवताओं, अर्थात विष्णु तथा शंकर की पूजा शुरू करते है और बाद में अज्ञानता तथा आत्म-विस्मृति के कारण वे अपने ही पहले वाले श्रीनारायण तथा श्रीलक्ष्मी रूप की भी पूजा शुरू कर देते है | इसलिए कहावत प्रसिद्ध है कि “जो स्वयं कभी पूज्य थे, बाद में वे अपने-आप ही के पुजारी बन गए |” श्री लक्ष्मी और श्री नारायण की आत्माओं ने द्वापर युग के 1250 वर्षों में ऐसी पुजारी स्थिति में भिन्न-भिन्न नाम-रूप से, वैश्य-वंशी भक्त-शिरोमणि राजा,रानी अथवा सुखी प्रजा के रूप में कुल 21 जन्म लिए |
इसके बाद कलियुग का आरम्भ हुआ | अब तो सूक्ष्म लोक तथा साकार लोक के देवी-देवताओं की पूजा इत्यादि के अतिरिक्त तत्व पूजा भी शुरू हो गई | इस प्रकार, भक्ति भी व्यभिचारी हो गई | यह अवस्था सृष्टि की तमोप्रधान अथवा शुद्र अवस्था थी | इस काल में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार उग्र रूप-धारण करते गए | कलियुग के अन्त में उन्होंने तथा उनके वंश के दूसरे लोगों ने कुल 42 जन्म लिए |
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि कुल 5000 वर्षों में उनकी आत्मा पूज्य और पुजारी अवस्था में कुल 84 जन्म लेती है | अब वह पुरानी, पतित दुनिया में 83 जन्म ले चुकी है | अब उनके अन्तिम, अर्थात 84 वे जन्म की वानप्रस्थ अवस्था में, परमपिता परमात्मा शिव ने उनका नाम “प्रजापिता ब्रह्मा” तथा उनकी मुख-वंशी कन्या का नाम “जगदम्बा सरस्वती” रखा है | इस प्रकार देवता-वंश की अन्य आत्माएं भी 5000 वर्ष में अधिकाधिक 84 जन्म लेती है | इसलिए भारत में जन्म-मरण के चक्र को “चौरासी का चक्कर” भी कहते है और कई देवियों के मंदिरों में 84 घंटे भी लगे होते है तथा उन्हें “84 घंटे वाली देवी” नाम से लोग याद करते है |
+  मनुष्यात्मा 84 लाख योनियाँ धारण नहीं करती

मनुष्यात्मा 84 लाख योनियाँ धारण नहीं करती
परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव ने वर्तमान समय जैसे हमें ईश्वरीय ज्ञान के अन्य अनेक मधुर रहस्य समझाये है, वैसे ही यह भी एक नई बात समझाई है कि वास्तव में मनुष्यात्माएं पाशविक योनियों में जन्म नहीं लेती | यह हमारे लिए बहुत ही खुशी की बात है | परन्तु फिर भी कई लोग ऐसे लोग है जो यह कहते कि मनुष्य आत्माएं पशु-पक्षी इत्यादि 84  लाख योनियों में जन्म-पुनर्जन्म लेती है |
वे कहते है कि- “जैसे किसी देश की सरकार अपराधी को दण्ड देने के लिए उसकी स्वतंत्रता को छीन लेती है और उसे एक कोठरी में बन्द कर देती है और उसे सुख-सुविधा से कुछ काल के लिए वंचित कर देती है, वैसे ही यदि मनुष्य कोई बुरे कर्म करता है तो उसे उसके दण्ड के रूप में पशु-पक्षी इत्यादि भोग-योनियों में दुःख तथा परतंत्रता भोगनी पड़ती है”|
परन्तु अब परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव ने समझया है कि मनुष्यात्माये अपने बुरे कर्मो का दण्ड मनुष्य-योनि में ही भोगती है | परमात्मा कहते है कि मनुष्य बुरे गुण-कर्म-स्वभाव के कारण पशु से भी अधिक बुरा तो बन ही जाता है और पशु-पक्षी से अधिक दुखी भी होता है, परन्तु वह पशु-पक्षी इत्यादि योनियों में जन्म नहीं लेता | यह तो हम देखते या सुनते भी है कि मनुष्य गूंगे, अंधे, बहरे, लंगड़े, कोढ़ी चिर-रोगी तथा कंगाल होते है, यह भी हम देखते है कि कई पशु भी मनुष्यों से अधिक स्वतंत्र तथा सुखी होते है, उन्हें डबलरोटी और मक्खन खिलाया जाता है, सोफे (Sofa) पर सुलाया जाता है, मोटर-कार में यात्रा करी जाती है और बहुत ही प्यार तथा प्रेम से पाला जाता है परन्तु ऐसे कितने ही मनुष्य संसार में है जो भूखे और अद्-र्धनग्न जीवन व्यतीत करते है और जब वे पैसा या दो पैसे मांगने के लिए मनुष्यों के आगे हाथ फैलाते है तो अन्य मनुष्य उन्हें अपमानित करते है | कितने ही मनुष्य है जो सर्दी में ठिठुर कर, अथवा रोगियों की हालत में सड़क की पटरियों पर कुते से भी बुरी मौत मर जाते है और कितने ही मनुष्य तो अत्यंत वेदना और दुःख के वश अपने ही हाथो अपने आपको मार डालते है | अत: जब हम स्पष्ट देखते है कि मनुष्य-योनि भी भोगी-योनि है और कि मनुष्य-योनि में मनुष्य पशुओं से अधिक दुखी हो सकता है तो यह क्यों माना जाए कि मनुष्यात्मा को पशु-पक्षी इत्यादि योनियों में जन्म लेना पड़ता है ?
जैसा बीज वैसा वृक्ष :
इसके अतिरिक्त, य्ह्र एक मनुष्यात्मा में अपने जन्म-जन्मान्तर का पार्ट अनादि काल से अव्यक्त रूप में भरा हुआ है और, इसलये मनुष्यात्माएं अनादि काल से परस्पर भिन्न-भिन्न गुण-कर्म-स्वभाव प्रभाव और प्रारब्ध वाली है | मनुष्यात्माओं के गुण, कर्म, स्वभाव तथा पार्ट (Part) अन्य योनियों की आत्माओं के गुण, कर्म, स्वभाव से अनादिकाल से भिन्न है | अत: जैसे आम की गुठली से मिर्च पैदा नहीं हो सकती बल्कि “जैसा बीज वैसा ही वृक्ष होता है”, ठीक वैसे ही मनुष्यात्माओं की तो श्रेणी ही अलग है | मनुष्यात्माएं पशु-पक्षी आदि 84 लाख योनियों में जन्म नहीं लेती | बल्कि, मनुष्यात्माएं सारे कल्प में मनुष्य-योनि में ही अधिक-से अधिक 84 जन्म, पुनर्जन्म लेकर अपने-अपने कर्मो के अनुरूप सुख-दुःख भोगती है |
यदि मनुष्यात्मा पशु योनि में पुनर्जन्म लेती तो मनुष्य गणना बढ़ती ना जाती :
आप स्वयं ही सोचिये कि यदि बुरी कर्मो के कारण मनुष्यात्मा का पुनर्जन्म पशु-योनि में होता, तब तो हर वर्ष मनुष्य-गणना बढ़ती ना जाती, बल्कि घटती जाती क्योंकि आज सभी के कर्म, विकारों के कारण विकर्म बन रहे है | परन्तु आप देखते है कि फिर भी मनुष्य-गणना बढ़ती ही जाती है, क्योंकि मनुष्य पशु-पक्षी या कीट-पतंग आदि योनियों में पुनर्जन्म नहीं ले रहे है |
+  सृष्टि नाटक का रचयिता और निर्देशक कौन है ?

सृष्टि रूपी नाटक के चार पट 
सामने दिए गए चित्र में दिखाया गया है कि स्वस्तिक सृष्टिचक्र को चार बराबर भागो में बांटता है -- सतयुग,त्रेतायुग द्वापर और कलियुग I 
सृष्टि नाटक में हर एक आत्मा का एक निश्चित समय पर परमधाम से इस सृष्टि रूपी नाटक के मंच पर आती है सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य सामने आते है और इन दो युगों की सम्पूर्ण सुखपूर्ण सृष्टि में पृथ्वी-मंच पर एक "अदि सनातन देवी देवता धर्म वंशकी ही मनुष्यात्माओ का पार्ट होता है और अन्य सभी धर्म-वंशो की आत्माए परमधाम में होती है अतइन दो युगों में केवल इन्ही दो वंशो की ही मनुष्यात्माये अपनी-अपनी पवित्रता की स्तागे के अनुसार नम्बरवार आती है इसलिएइन दो युगों में सभी अद्वेत पुर निर्वैर स्वभाव वाले होते है I 
द्वापरयुग में इसी धर्म की रजोगुणी अवस्था हो जाने से इब्राहीम द्वारा इस्लाम धर्म-वंश कीबुद्ध द्वारा बौद्ध-धर्म वंश की और ईसा द्वारा ईसाई धर्म की स्थापना होती है अतइन चार मुख्य धर्म वंशो के पिता ही संसार के मुख्य एक्टर्स  है और इन चार धर्म के शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है इसके अतिरिक्तसन्यास धर्म के स्थापक नानक भी इस विश्व नाटक के मुख्य एक्टरो में से है परन्तु फिर भी मुख्य रूप में पहले बताये गए चार धर्मो पर ही सारा विश्व नाटक आधारित है इस अनेक मत-मतान्तरो के कारण द्वापर युग तथा कलियुग की सृष्टि में द्वेतलड़ाई झगडा तथा दुःख होता है I
कलियुग के अंत मेंजब धर्म की आती ग्लानी हो जाती हैअर्थात विश्व का सबसे पहला अदि सनातन देवी देवता धर्मबहुत क्षीण हो जाता है और मनुष्य अत्यंत पतित हो जाते हैतब इस सृष्टि के रचयिता तथा निर्देशक परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में स्वयं अवतरित होते है I वे प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मुख-वंशी  कन्या --" ब्रह्माकुमारी सरस्वती तथा अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मानियो को रचते है और उन द्वारा पुनसभी को अलौकिक माता-पिता के रूप में मिलते है तथा ज्ञान द्वारा उनकी मार्ग-प्रदर्शना करते है और उन्हें मुक्ति तथा जीवनमुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार देते है अतप्रजपिता बह्मा तथा जगदम्बा सरस्वतीजिन्हें ही "एडम"  अथवा "इवअथवा "आदम और हव्वाभी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका है क्योंकि इन्ही द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते है कलियुग के अंत और सतयुग के आरंभ का यह छोटा सा संगमअर्थात संगमयुगजब परमात्मा अवतरित होते हैबहुत ही महत्वपूर्ण है I 
विश्व के इतिहास और भूगोल की पुनरावृत्ति 
चित्र में यह भी दिखाया गया है कि कलियुग के अंत में परमपिता परमात्मा शिव जब महादेव शंकर के द्वारा सृष्टि का महाविनाश करते है तब लगभग सभी आत्मा रूपी एक्टर अपने प्यारे देशअर्थात मुक्तिधाम को वापस लौट जाते है और फिर सतयुग के आरंभ से "अदि सनातन देवी देवता धर्मकि मुख्य मनुष्यात्माये इस सृष्टि-मंच पर आना शुरू कर देती है फिर २५०० वर्ष के बादद्वापरयुग के प्रारंभ से इब्राहीम के इस्लाम घराने की आत्माएफिर बौद्ध धर्म वंश की आत्माएफिर ईसाई धर्म वंश की आत्माए अपने-अपने समय पर सृष्टि-मंच पर फिर आकर अपना-अपन अनादि-निश्चित पार्ट बजाते है और अपनी स्वर्णिमरजतताम्र और लोहचारो अवस्थाओ को पर करती है इस प्रकारयह अनादि निश्चित सृष्टि-नाटक अनादि काल से हर ५००० वर्ष के बाद हुबहू पुनरावृत्त होता ही रहता है I
+  कलियुग अभी बच्चा नहीं है बल्कि बुढ़ा हो गया है

कलियुग अभी बच्चा नहीं है बल्कि बुढ़ा हो गया है 
इसका विनाश निकट है और शीघ्र ही सतयुग आने वाला है |
आज बहुत से लोग कहते है , " कलियुग अभी बच्चा है अभी तो इसके लाखो वर्ष और रहते है शस्त्रों के अनुसार अभी तो सृष्टि के महाविनाश में बहुत काल रहता है | "
परन्तु अब परमपिता परमात्मा कहते है की अब तो कलियुग बुढ़ा हो चूका है अब तो सृष्टि के महाविनाश की घडी निकट आ पहुंची है अब सभी देख भी रहे है की यह मनुष्य सृष्टि कामक्रोध,लोभ,मोह तथा अहंकार की चिता पर जल रही है सृष्टि के महाविनाश के लिए एटम बमहाइड्रोजन बम तथा मुसल भी बन चुके है अतअब भी यदि कोई कहता है कि महाविनाश दूर हैतो वह घोर अज्ञान में है और कुम्भकर्णी निंद्रा में सोया हुआ हैवह अपना अकल्याण कर रहा है अब जबकि परमपिता परमात्मा शिव अवतरित होकर ज्ञान अमृत पिला रहे हैतो वे लोग उनसे वंचित है | 
आज तो वैज्ञानिक एवं विद्याओं के विशेषज्ञ भी कहते है कि जनसँख्या जिस तीव्र गति से बढ रही हैअन्न की उपज इस अनुपात से नहीं बढ रही है इसलिए वे अत्यंत भयंकर अकाल के परिणामस्वरूप महाविनाश कि घोषणा करते है पुनश्चवातावरण प्रदुषण तथा पेट्रोलकोयला इत्यादि शक्ति स्त्रोतों के कुछ वर्षो में ख़त्म हो जाने कि घोषणा भी वैज्ञानिक कर रहे है अन्य लोग पृथ्वी के ठन्डे होते जाने होने के कारण हिम-पात कि बात बता रहे है आज केवल रूस और अमेरिका के पास ही लाखो तन बमों जितने आणविक शस्त्र है इसके अतिरिक्तआज का जीवन ऐसा विकारी एवं तनावपूर्ण हो गया है कि अभी करोडो वर्ष तक कलियुग को मन्ना तो इन सभी बातो की ओर आंखे मूंदना ही है परन्तु सभी को याद रहे कि परमात्मा अधर्म के महाविनाश से ही देवी धर्म की पुनसथापना भी कराते है | 
अतसभी को मालूम होना चाहिए कि अब परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव सतयुगी पावन एवं देवी सृष्टि कि पुनस्थापना करा रहे है वे मनुष्य को देवता अथवा पतितो को पावन बना रहे है अतअब उन द्वारा सहज राजयोग तथा ज्ञानयह अनमोल विद्या सीखकर जीवन को पावनसतोप्रधन देवीतथा आन्नदमय बनाने का सर्वोत्तम पुरुषार्थ करना चाहिए जो लोग यह समझ बैठे है कि अभी तो कलियुग में लाखो वर्ष शेष हैवे अपने ही सौभाग्य को लौटा रहे है!
अब कलियुगी सृष्टि अंतिम श्वास ले रही हैयह मृत्यु-शैया पर है यह कामक्रोध लोभमोह और अहंकार रोगों द्वारा पीड़ित है अतइस सृष्टि की आयु अरबो वर्ष मानना भूल है और कलियुग को अब बच्चा मानकर अज्ञान-निंद्रा में सोने वाले लीग "कुम्भकरणहै जो मनुष्य इस ईश्वरीय सन्देश को एक कण से सुनकर दुसरे कण से निकल देते है उन्ही के कान ऐसे कुम्भ के समान हैक्योंकि कुम्भ बुद्धि-हीन होता है|
+  क्या रावण के दस सिर  थेरावण किसका प्रतीक है  ?

क्या रावण के दस सिर  थेरावण किसका प्रतीक है  ?
भारत के लोग प्रतिवर्ष रावण का बुत जलाते है I उनका काफी विश्वास है की एक दस सिर वाला रावण श्रीलंका का रजा थावह एक बहुत बड़ा राक्षस था और उसने श्री सीता का अपहरण  किया  था I वे  यह  भी  मानते  है की रावण बहुत बड़ा विद्वान  था इसलिए  वे  उसके  हाथ  में  वेद,  शास्त्र  इत्यादि   दिखाते  है I साथ  ही  वे  उसके  शीश  पर    गधे का सिर भी दिखाते है I जिसका अर्थ वे यह लेते है की वह हठी ओर मतिहीन था लेकिन अब परमपिता परमात्मा शिव ने समझाया है की रावण कोई दस शीश वाला राक्षस ( मनुष्य) नही था बल्कि रावण का पुतला वास्तव में बुरे का प्रतीक है रावण के दस सिर पुरुष और स्त्री के पांच-पांच विकारो को प्रकट करते है I और उसकी तुलना एक ऐसे समाज का प्रतिरूप है जो इस प्रकार के विकारी स्त्री-पुरुष का बना हो इस समाज के लोग बहुत ग्रन्थ और शास्त्र पड़े  हुए तथा विज्ञानं में उच्च शिक्षा प्राप्त भी हो सकते है लेकिन वे हिंसा और अन्य विकारो के वशीभूत होते है I इस तरह उनकी विद्वता उन पर बोझ मात्र होती है I वे उद्दंड  बन गए होते है I और भलाई की बातो के लिए उनके कान बंद हो गए होते है I " रावण " शब्द का अर्थ ही है - जो दुसरो को रुलाने वाला है I अत: यह बुरे कर्मो का प्रतीक हैक्योंकि बुरे कर्म ही तो मनुष्य के जीवन में दुःख व् आंसू लाते है  अतएव  सीता के अपहरण का भाव वास्तव में आत्माओ की शुद्ध भावनाओ ही के अपहरण का सूचक है I इसी प्रकार कुम्भकरण आलस्य का तथा " मेघनाथ" कटु वचनों का प्रतीक है और यह सारा संसार ही एक महाद्वीप है अथवा मनुष्य  का मन ही लंका है I 
इस विचार से हम कह सकते है की इस विश्व में द्वापरयुग और कलियुग में ( अर्थात २५०० वर्षो) " रावण राज्य" होता है क्योंकि इन दो युगों में लोग माया या विकारो के वशीभूत होते है उस समय अनेक पूजा पाठ करने  तथा शास्त्र पढने के बाद भी मनुष्य विकारीअधर्मी   बन जाते  है रोग ,शोक ,  अशांति  और दुःख का सर्वत्र   बोल  बाला  होता है I मनुष्यों   का खानपान  असुरो जैसा ( मांसमदिरातामसी भोजन  आदि) बन जाता है वे कामक्रोधलोभमोहअहंकारईर्ष्याद्वेष आदि विकारो के वशीभूत होकर एक दुसरे को दुःख देते और रुलाते रहते है I ठीक   इसके विपरीत स्वर्ण युग और रजत युग में राम-राज्य थाक्योंकि परमपिताजिन्हें की रमणीक अथवा  सुखदाता होने के कारण " राम" भी कहते हैने उस पवित्रताशांति और सुख संपन्न देसी स्वराज्य की पुन: स्थापना की थी उस राम राज्य के बारे में प्रसिद्द है की तब शहद और दूध की नदिया बहती थी और शेर तथा गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे I
अब वर्तमान  में मनुष्यात्माये फिर से माया अर्थात रावण के प्रभाव में है औध्योगिक उन्नतिप्रचुर धन-धन्य और सांसारिक सुख - सभी साधन होते हुए भी मनुष्य  को सच्चे सुख शांति की प्राप्ति नहीं है I घर-घर में कलह कलेश  लड़ाई-झगडा और दुःख अशांति है तथा मिलावटअधर्म और असत्यता का ही राज्य है तभी तो ऐसे " रावण राज्य" कहते है I
अब परमात्मा शिव गीता में दिए अपने वचन के अनुसार सहज ज्ञान और राजयोग की शिक्षा दे रहे है और मनुष्यात्माओ  के मनोविकारो को ख़त्म करके उनमे देवी गुण धारण करा रहे है ( वे पुन: विश्व में बापू-गाँधी के स्वप्नों के राम राज्य की स्थापना करा रहे है I ) अत: हम सबको सत्य धर्म और निर्विकारी मार्ग अपनाते हुए परमात्मा के इस महान कार्य में सहयोगी बनना   चाहिए I
+  मनुष्य जीवन का लक्ष्य  क्या है  ?

मनुष्य जीवन का लक्ष्य  क्या है  ?
मनुष्य का वर्तमान जीवन बड़ा अनमोल है क्योंकि अब संगमयुग में ही वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करके जन्म-जन्मान्तर के लिए सर्वोत्तम प्रारब्ध बना सकता है और अतुल हीरो-तुल्य कमाई कर सकता है I 
वह इसी जन्म में सृष्टि का मालिक अथवा जगतजीत बनने का पुरुषार्थ कर सकता है I परन्तु आज मनुष्य को जीवन का लक्ष्य मालूम न होने के कारण वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करने की बजाय इसे विषय-विकारो में गँवा रहा है I अथवा अल्पकाल की प्राप्ति में लगा रहा है I आज वह लौकिक शिक्षा द्वारा वकीलडाक्टरइंजिनीयर बनने का पुरुषार्थ कर रहा है और कोई तो राजनीति में भाग लेकर देश का नेतामंत्री अथवा प्रधानमंत्री बनने के प्रयत्न में लगा हुआ है अन्य कोई इन सभी का सन्यास करके, "सन्यासी" बनकर रहना चाहता है I परन्तु सभी जानते है की म्रत्यु-लोक  में तो राजा-रानीनेता वकीलइंजीनियरडाक्टरसन्यासी इत्यादि कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है I सभी को तन का रोगमन की अशांतिधन की कमीजानता की चिंता या प्रकृति के द्वारा कोई पीड़ाकुछ न कुछ तो दुःख लगा ही हुआ है I अत: इनकी प्राप्ति से मनुष्य जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि मनुष्य तो सम्पूर्ण - पवित्रतासदा सुख और स्थाई शांति चाहता है I
चित्र में अंकित किया गया है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य जीवन-मुक्ति की प्राप्ति अठेया वैकुण्ठ में सम्पूर्ण सुख-शांति-संपन्न श्री नारायण या श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति ही है I क्योंकि वैकुण्ठ के देवता तो अमर मने गए हैउनकी अकाल म्रत्यु नही होतीउनकी काया सदा निरोगी रहती है I और उनके खजाने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती इसीलिए तो मनुष्य स्वर्ग अथवा वैकुण्ठ को याद करते है और जब उनका कोई प्रिय सम्बन्धी शरीर छोड़ता है तो वह कहते है कि -" वह स्वर्ग सिधार गया है " I
इस पद की प्राप्ति स्वयं परमात्मा ही ईश्वरीय विद्या द्वारा कराते है
इस लक्ष्य की प्राप्ति कोई मनुष्य अर्थात कोई साधू-सन्यासीगुरु या जगतगुरु नहीं करा सकता बल्कि यह दो ताजो वाला देव-पद अथवा राजा-रानी पद तो ज्ञान के सागर परमपिता परमात्मा शिव ही से प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग के अभ्यास से प्राप्त होता है I
अत: जबकि परमपिता परमात्मा शिव ने इस सर्वोत्तम ईश्वरीय विद्या की शिक्षा देने के लिए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय की स्थापना की है I तो सभी नर-नारियो को चाहिए की अपने घर-गृहस्थ में रहते हुएअपना कार्य धंधा करते हुएप्रतिदिन एक-दो- घंटे निकलकर अपने भावी जन्म-जन्मान्तर के कल्याण के लिए इस सर्वोत्तम तथा सहज शिक्षा को प्राप्त करे I
इस विद्या की प्राप्ति के लिए कुछ भी खर्च करने की आवश्यकता नही हैइसीलिए इसे तो निर्धन व्यक्ति भी प्राप्त कर अपना सौभाग्य  बना सकते है I इस विद्या को तो कन्याओमतोंवृद्ध-पुरुषोछोटे बच्चो और अन्य सभी को प्राप्त करने का अधिकार है क्योंकि आत्मा की दृष्टी से तो सभी परमपिता परमात्मा की संतान है I

अभी नहीं तो कभी नहीं
वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है I इसलिय अब यह पुरुषार्थ न किया तो फिर यह कभी न हो सकेगा क्योंकि स्वयं ज्ञान सागर परमात्मा द्वारा दिया हुआ यह मूल गीता - ज्ञान कल्प में एक ही बार इस कल्याणकारी संगम युग में ही प्राप्त हो सकता है I
+  निकट भविष्य में  श्रीकृष्ण  आ  रहे  है 
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+  जीवन कमल पुष्प समान कैसे बनायें ?
+  राजयोग का आधार तथा विधि 

राजयोग का आधार तथा विधि 
सम्पूर्ण स्थिति को प्राप्त करने के लिए और शीघ्र ही अध्यात्मिक में उन्नति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को राजयोग के निरंतर अभ्यास की आवश्यकता हैअर्थात चलते फिरते और कार्य-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की स्मृति में स्थित होने को जरुरत है I
यद्यपि निरंतर योग के बहुत लाभ है I और निरंतर योग द्वारा ही मनुष्य सर्वोत्तम अवस्था को प्राप्त कर सकता है I तथापि विशेष रूप से योग में बैठना आवश्यक है I इसीलिए चित्र में दिखाया गया है कि परमात्मा को याद करते समय हेम अपनी बुद्धि सब तरफ से हटाकर एक जोतिर्बिंदु परमात्मा शिव से जुटानी चाहिए मान चंचल होने के कारण कामक्रोधलोभमोहअहंकार अथवा शास्त्र और गुरुओ की तरफ भागता है I लेकिन अभ्यास के द्वारा हमें इसको एक परमात्मा की याद में ही स्थित करना है I अत: देह सहित देह के सर्व-सम्भंधो को भूल कर आत्म-स्वरूप में स्थित होकरबुद्धि में जोतिर्बिंदु परमात्मा शिव की स्नेहयुक्त स्मृति में रहना ही वास्तविक योग है जैसा की चित्र में दिखलाया गया है I
कई मनुष्य योग को बहुत कठिन समझते हैवे कई प्रकार की हाथ क्रियाएं तप अथवा प्राणायाम करते रहते है I लेकिन वास्तव में "योग"  अति सहज है जैसे की एक बच्चे को अपने देहधारी पिता की सहज और स्वत: याद रहती है वैसे ही आत्मा को अपने पिता परमात्मा की याद स्वत: और सहज होनी चाहिए इस अभ्यास के लिए यह सोचना चाहिए कि- " मैं एक आत्मा हूँमैं ज्योति -बिंदु परमात्मा शिव  की अविनाशी संतान हूँ जो परमपिता ब्रह्मलोक के वासी हैशांति के सागरआनंद  के सागर प्रेम के सागर और सर्वशक्तिमान है --I " ऐसा मनन करते हुए मन को ब्रह्मलोक में परमपिता परमात्मा शिव पर स्थित करना चाहिए और परमात्मा के दिव्य-गुणों और कर्तव्यो का ध्यान करना चाहिए I 
जब मन में इस प्रकार की स्मृति में स्थित होगा I तब सांसारिक संबंधो अथवा वस्तुओं का आकर्षण अनुभव नहीं होगा जितना ही परमात्मा द्वारा सिखाया  गये ज्ञान में निश्चय होगाउतना ही सांसारिक विचार और लौकिक संबंधियों  की याद मन में नही आयेगी I और उतना ही अपने स्वरूप का परमप्रिय परमात्मा के गुणों का अनुभव होगा I 
आज बहुत से लोग कहते है कि हमारा मन परमात्मा कि स्मृति में नही टिकता अथवा हमारा योग नही लगता इसका एक कारण तो यह है  कि वे " आत्म-निश्चय" में स्थित नही होते आप जानते  है कि जब बिजली के दो तारो को जोड़ना होता है तब उनके ऊपर के रबड़ को हटाना पड़ता हैतभी उनमे करंट आता है इसी प्रकारयदि कोई निज देह के बहन में होगा तो उसे भी अव्यक्त अनुभूति नही होगीउसके मन की तार परमात्मा से नही जुड़ सकती I
दूसरी बात यह है कि वे तो परमात्मा को नाम-रूप से न्यारा व् सर्वव्यापक मानते हैअत: वे मन को कोई ठिकाना भी नही दे सकते I परन्तु अब तो यह स्पष्ट किया गया है कि परमात्मा का दिव्य-नाम शिवदिव्य-रूप ज्योति-बिंदु और दिव्यधाम परमधाम अथवा ब्रह्मलोक है अत: वहा मन को टिकाया जा सकता है I
तीसरी बात यह है कि उन्हें परमात्मा के साथ अपने घनिष्ट सम्बन्ध  का भी परिचय  नही हैइसी कारण परमात्मा के प्रति उनके मन में घनिष्ट स्नेह नही अब यह ज्ञान हो जाने पर हमे ब्रह्मलोक के वासी परमप्रिय परमपिता शिव-जोती-बिंदु कि स्मृति में रहना चाहिए I
+  राजयोग के स्तम्भ अथवा नियम

राजयोग के स्तम्भ अथवा नियम
वास्तव में ‘योग’ का अर्थ – ज्ञान के सागर, शान्ति के सागर, आनन्द के सागर, प्रेम के सागर, सर्व शक्तिवान, पतितपावन परमात्मा शिव के साथ आत्मा का सम्बन्ध जोड़ना है ताकि आत्मा को भी शान्ति, आनन्द, प्रेम, पवित्रता, शक्ति और दिव्यगुणों की विरासत प्राप्त हो |
योग के अभ्यास के लिए उसे आचरण सम्बन्धी कुछ नियमों का अथवा दिव्य अनुशासन का पालन करना होता है क्योंकि योग का उद्धेश्य मन को शुद्ध करना, दृष्टी कोण में परिवर्तन लाना और मनुष्य के चित्त को सदा प्रसन्न अथवा हर्ष-युक्त बनाना है | दूसरे शब्दों में योग की उच्च स्थिति किन्ही आधारभूत स्तम्भों पर टिकी होती है |
इनमे से एक है – ब्रह्मचर्य या पवित्रता | योगी शारीरिक सुंदरता या वासना-भोग की और आकर्षित नहीं होता क्योंकि उसका दृष्टी कोण बदल चूका होता है | वह आत्मा की सुंदरता को ही पूर्ण महत्व देता है | उसका जीवन ‘ब्रहमचर्य’ शब्द के वास्तविक अर्थ में ढला होता है | अर्थात उसका मन ब्रह्म में स्थित होता है और वह देह की अपेक्षा विदेही (आत्माभिमानी) अवस्था में रहता है | अत: वह सबको भाई भाई के रूप में देखता है और आत्मिक प्रेम व सम्बन्ध का ही आनन्द लेता है | यहाँ आत्मिक स्मृति और ब्रह्मचर्य इसे ही महान शारीरिक शक्ति, कार्य-क्षमता, नैतिक बल और आत्मिक शक्ति देते है | यह उसके मनोबल को बढाते है और उसे निर्णय शक्ति, मानसिक संतुलन और कुशलता देते है |
दूसरा महत्वपूर्ण स्तम्भ है – सात्विक आहार | मनुष्य जो आहार कर्ता है उसका उसके मस्तिष्क पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है | इसलिए योगी मांस, अंडे उतेजक पेय या तम्बाकू नहीं लेता | अपना पेट पालने के लिए वह अन्य जीवों की हत्या नहीं करता, न ही वह अनुचित साधनों से धन कमाता है | वह पहले भगवान को भोग लगाता और तब प्रशाद के रूप में उसे ग्रहण करता है | भगवान द्वारा स्वीकृत वह भोजन उसके मन को शान्ति व पवित्रता देता है, तभी ‘जैसा अन्न वैसा मन’ की कहावत के अनुसार उसका मन शुद्ध होता है और उसकी कामना कल्याणकारी तथा भावना शुभ बनी रहती है |
अन्य महत्वपूर्ण स्तम्भ है –‘सत्संग’ | जैसा संग वैसा रंग’ – इस कहावत के अनुसार योगी सदा इस बात का ध्यान रखता है कि उसका सदा ‘सत-चित-आनन्द’ स्वरूप परमात्मा के साथ ही संग बना रहे | वह कभी भी कुसंग में अथवा अश्लील साहित्य अथवा कुविचरों में अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता | वह एक ही प्रभु की याद व लग्न में मग्न रहता है तथा अज्ञानी, मिथ्या-अभिमानी अथवा विकारी, देहधारी मनुष्यों को याद नहीं करता और न ही उनसे सम्बन्ध जोड़ता है |
चौथा स्तम्भ है – दिव्यगुण | योगी सदा अन्य आत्माओं को भी अपने दिव्य-गुणों, विचारों तथा दिव्य कर्मो की सुगंध से अगरबत्ती की तरह सुगन्धित करता रहता है, न कि आसुरी स्वभाव, विचार व कर्मो के वशीभूत होता है | विनम्रता, संतोष, हर्षितमुख्ता, गम्भीरता, अंतर्मुखता, सहनशीलता और अन्य दिव्य-गुण योग का मुख्य आधार है | योगी स्वयं तो इन गुणों को धारण करता ही  है, साथ ही अन्य दुखी भूली-भटकी और अशान्त आत्माओं को भी अपने गुणों का दान करता है और उसके जीवन में सच्ची सुख-शान्ति प्रदान करता है | इन नियमों को पालन करने से ही मनुष्य सच्चा योगी जीवन बना सकता है तथा रोग, शोक, दुःख व अशान्ति रूपी भूतों के बन्धन से छुटकारा पा सकता है |
+  राजयोग से प्राप्ति--अष्ट शक्तियां

राजयोग से प्राप्ति--अष्ट शक्तियां 
राज्योग के अभ्यास सेअर्थात मन का नाता परमपिता  परमात्मा के साथ जोड़ने सेअविनाशी सुख-शांति कि प्राप्ति तो होती ही हैसाथ ही कई प्रकार की अध्यात्मिक शक्तियां भी आ जाती है इनमे से आठ मुख्य और बहुत ही महत्वपूर्ण हैI
इनमे से एक है " सिकोड़ने और फैलानी की शक्ति" जैसे कछुआ अपने अंगो को जब चाहे सिकोड़ लेता हैजब चाहे उन्हें फै लेता हैवैसे ही राजयोगी जब चाहे अपनी इच्छानुसार अपनी कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्म करता है और जब चाहे विदेही एवं शांत अवस्था में रह सकता है I इस प्रकार विदेही अवस्था में रहने से उस पर माया का वार नही होगा I
दूसरी शक्ति है -" समेटने की शक्ति" इस संसार को मुसाफिर खाना तो सभी कहते है लेकिन व्यवहारिक जीवन में वे इतना तो विस्तार कर लेते है कि अपने कार्य और बुद्धि को समेटना चाहते हुए भी समेत नही पातेजबकि योगी अपनी बुद्धि को इस विशाल दुनिया में न फैला कर एक परमपिता परमात्मा की तथा आत्मिक सम्बन्ध की याद में ही अपनी बुद्धि को लगाये रखता है I वह कलियुगी संसार से अपनी बुद्धि और संकल्पों का बिस्तर व् पेटी समेटकर सदा अपने घर-परमधाम- में चलने को तैयार रहता है I तीसरी शक्ति है " सहन शक्ति" जैसे वृक्ष पर पत्थर मारने पर भी मीठे फल देता  है और  अपकार करने वाले पर भी उपकार करता हैवैसे ही एक योगी भी सदा अपकार करने वालो के प्रति भी शुभ भावना और कामना ही रखता है I
योग से जो चोथी शक्ति प्राप्त होती है  वह है "समाने की शक्ति"  योग का अभ्यास मनुष्य की बुद्धि विशाल बना  देता  है और मनुष्य   गभीरता  और मर्यादा  का गुण  धारण  करता है I थोड़ी  सी  खुशियामानपद पाकर वह अभ्मानी नही  बन जाता और न ही किसी प्रकार की कमी आने पर या हानि होने के अवसर पर दुखी होता है वह तो समुद्र की तरह सदा अपने दैवी कुल की मर्यादा में बंधा रहता है और गंभीर अवस्था में रहकर दूसरी आत्माओं के अवगुणों को न देखते हुए केवल उनसे गुण ही धारण करता है  I
योग से जो अन्य शक्ति जो मिलती है वह है " परखने की शक्ति" जैसे एक पारखी ( जौहरी) अभुश्नो को कसौटी पर परखकर उसकी असल और नक़ल को जन जाता हैइसे ही योगी भीकिसी भी मनुष्यात्मा के संपर्क में आने से उसको परख लेता है और  उससे सच्चाई या झूठ कभी छिपा नही रह सकता I वह तो सदा सच्चे ज्ञान-रत्नों को ही अपनाता है तथा अज्ञानता के झूठे कंकड़पत्थरों में अपनी बुद्धि नही फसाता I
एक योगी को महान निर्णय शक्ति भी स्वत: प्राप्त हो जाती है I वह उचित और अनुचित बात का शीघ्र  ही निर्णय कर लेता है I वह व्यर्थ सकल्प और परचिन्तन से मुक्त होकर सदा प्रभु चिंतन में रहता है I योग के अभ्यास से मनुष्य को " सामना करने की शक्ति" भी प्राप्त होती है I यदि उसके सामने अपने निकट सम्बन्धी की मृत्यु-जैसी आपदा आ भी जाये अथवा सांसारिक समस्याए तूफान का रूप भी धारण कर ले तो भी वह कभी विचलित नही होता और उसका आत्मा रूपी दीपक सदा ही जलता रहता है तथा अन्य आत्माओं को ज्ञान-प्रकाश देता रहता है I
अन्य शक्तिजो योग के अभ्यास से प्राप्त होती हैवह है " सहयोग की शक्ति" एक योगी अपने तन,मनधन से तो ईश्वरीय सेवा करता ही हैसाथ ही उसे अन्य आत्माओं का भी सहयोग स्वत: प्राप्त होता हैजिस कारण वे कलियुगी पहाड़ ( विकारी संसार) को उठाने में अपनी पवित्र जीवन रूपी अंगुली देकर स्वर्ग की स्थापने के पहाड़ समान कार्य में सहयोगी बन जाते है I
+  राजयोग की यात्रा – स्वर्ग की और दौड़

राजयोग की यात्रा – स्वर्ग की और दौड़
राजयोग के निरंतर अभ्यास से मनुष्य को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती है | इन शक्तियों के द्वारा ही मनुष्य सांसारिक रुकावटों को पार कर्ता हुआ आध्यात्मित्क मार्ग की और अग्रसर होता है | आज मनुष्य अनेक प्रकार के रोग, शोक, चिन्ता और परेशानियों से ग्रसित है और यह सृष्टि ही घोर नरक बन गई है | इससे निकलकर स्वर्ग में जाना हर एक प्राणी चाहता है लेकिन नरक से स्वर्ग की और का मार्ग कई रुकावटों से युक्त है | काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार उसके रास्ते में मुख्य बाधा डालते है | पुरुषोतम संगम युग में ज्ञान सागर परमात्मा शिव जो सहज राजयोग की शिक्षा प्रजापिता ब्रह्मा के द्वारा दे रहे है, उसे धारण करने से ही मनुष्य इन प्रबल शत्रुओं (५ विकारों) को जीत सकता है |
चित्र में दिखाया है कि नरक से स्वर्ग में जाने के लिए पहले-पहले मनुष्य को काम विकार की ऊंची दीवार को पार करना पड़ता है जिसमे नुकीले शीशों की बाढ़ लगी हुई है | सको पार करने में कई व्यक्ति देह-अभिमान के कारण से सफलता नहीं प् सकते है और इसीलिए नुकीलें शीशों पर गिरकर लहू-लुहान हो जाते है | विकारी दृष्टी, कृति, वृति ही मनुष्य को इस दीवार को पार नहीं करने देती | अत: पवित्र दृष्टी (Civil Eye) बनाना इन विकारों को जीतने के लिए अति आवश्यक है |
दूसरा भयंकर विघ्न क्रोध रूपी अग्नि-चक्र है | क्रोध के वश होकर मनुष्य सत्य और असत्य की पहचान भी नहीं कर पाता है और साथ ही उसमे ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि विकारों का समावेश हो जाता है जिसकी अग्नि में वह स्वयं तो जलता ही है साथ में अन्य मनुष्यों को भी जलाता है | इस भधा को पार करने के लिए ‘स्वधर्म’ में अर्थात ‘मैं आत्मा शांत स्वरूप हूँ’ – इस स्तिथि में स्थित होना अत्यावश्यक है | लोभ भी मनुष्य को उसके सत्य पथ से प्रे हटाने के लिए मार्ग में खड़ा है | लोभी मनुष्य को कभी भी शान्ति नहीं मिल सकती और वह मन को परमात्मा की याद में नहीं टिका सकता | अत: स्वर्ग की प्राप्ति के लिए मनुष्य को धन व खजाने के लालच और सोने की चमक के आकर्षण पर भी जीत पानी है |
मोह भी एक ऐसी बाधा है जो जाल की तरह खड़ी रहती है | मनुष्य मोह के कड़े बन्धन-वश, अपने धर्म व कार्य को भूल जाता है और पुरुषार्थ हींन बन जाता है | तभी गीता में भगवान ने कहा है कि ‘नष्टोमोहा स्मृतिर्लब्धा:’ बनो, अर्थात देह सहित देह के सर्व सम्बन्धों के मोह-जाल से निकल कर परमात्मा की याद में स्थित हो जाओ और अपने कर्तव्य को करो, इससे ही स्वर्ग की प्राप्ति हो सकेगी | इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्यात्मा मोह के बन्धनों से मुक्ति पाए, तभी माया के बन्धनों से छुटकारा मिलेगा और स्वर्ग की प्राप्ति होगी |
अंहकार भी मनुष्य की उन्नति के मार्ग में पहाड़ की तरह रुकावट डालता है | अहंकारी मनुष्य कभी भी परमात्मा के निकट नहीं पहुँच सकता है | अहंकार के वश ,मनुष्य पहाड़ की ऊंची छोटी से गिरने के समान चकनाचूर हो जाता है | अत: स्वर्ग में जाने के लिए अहंकार को भी जीतना आवश्यक है | अत: याद रहे कि इन विकारों पर विजय प्राप्त करके मनुष्य से देवता बनने वाले ही नर-नारी स्वर्ग में जा सकती है, वरना हर एक व्यक्ति के मरने के बाद जो यह ख दिया जाता है कि ‘वह स्वर्गवासी हुआ’, यह सरासर गलत है | यदि हर कोई मरने के बाद स्वर्ग जा रहा होता तो जन-संख्या कम हो जाती और स्वर्ग में भीड़ लग जाती और मृतक के सम्बन्धी मातम न करते |  
+  गीता ज्ञान कब क्यों और किसके द्वारा दिया गया ?
+  दिव्य गुण
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इस पथ-प्रदर्शनी में जो ईश्वरीय ज्ञान, व सहज राजयोग लिपि-बद्ध किया गया है, उसकी विस्तारपूर्वक शिक्षा प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विधालय में दी जाती है | ऊपर जो चित्र अंकित क्या गया है, वह उसके मुख्य शिक्षा-स्थान तथा मुख्य कार्यालय का है | इस ईश्वरीय विश्व-विधालय की स्थापना परमप्रिय परमपिता परमात्मा ज्योति-बिन्दु शिव ने 1937 में सिन्ध में की थी | परमपिता परमात्मा शिव परमधाम अर्थात ब्रह्मलोक से अवतरित होकर एक साधारण एवं वृद्ध मनुष्य के तन में प्रविष्ट हुए थे क्योंकि किसी मानवीय मुख का प्रयोग किए बिना निराकार परमात्मा अन्य किसी रीति से ज्ञान देते?
ज्ञान एवं सहज राजयोग के द्वारा सतयुग की स्थापनार्थ ज्योति-बिन्दु शिव का जिस मनुष्य के तन में ‘दिव्य प्रवेश’ अथवा दिव्य जन्म हुआ, उस मनुष्य को उन्होंने ‘प्रजापिता ब्रह्मा’- यह अलौकिक नाम दिया | उनके मुखार्विन्द द्वारा ज्ञान एवं योग की शिक्षा लेकर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाले तथा पूर्ण पवित्रता का व्रत लेने वाले नर और नारियों को क्रमश: मुख-वंशी ‘ब्राह्मण’ तथा ‘ब्राह्मनियाँ’ अथवा ‘ब्रह्माकुमार’ और ब्रह्माकुमारियाँ’ कहा जाता है क्योंकि उनका आध्यात्मिक नव-जीवन ब्रह्मा के श्रीमुख द्वारा विनिसृत ज्ञान से हुआ |
परमपिता शिव तो त्रिकालदर्शी है; वे तो उनके जन्म-जन्मान्तर की जीवन कहानी को जानते थे कि यह ही सतयुग के आरम्भ में पूज्य श्री नारायण थे और समयान्तर में कलाएं कम होते-होते अब इस अवस्था को प्राप्त हुए थे | अत: इनके तन में प्रविष्ट होकर उन्होंने सन 1937 में इस अविनाशी ज्ञान-यज्ञ की अथवा ईश्वरीय विश्व-विधालय की 5000 वर्ष पहले की भांति, पुन: स्थापना की | इन्ही प्रजापिता ब्रह्मा को ही महाभारत की भाषा में ‘भगवान का रथ’ भी कहा जाता सकता है, ज्ञान-गंगा लाने के निमित बनने वाले ‘भागीरथ’ भी और ‘शिव’ वाहन ‘नन्दीगण’ भी |
जिस  मनुष्य के तन में परमात्मा शिव ने प्रवेश किया, वह उस समय कलकता में एक विख्यात जौहरी थे और श्री नारायण के अनन्य भक्त थे | उनमें उदारता, सर्व के कल्याण की भावना, व्यवहार-कुशलता, राजकुलोचित शालीनता और प्रभु मिलन की उत्कट चाह थी | उनके सम्बन्ध राजाओं-महाराजाओं से भी थे, समाज के मुखियों से भी और साधारण एवं निम्न वर्ग से भी खूब परिचित थे | अत: वे अनुभवी भी थे और उन दिनों उनमें भक्ति की पराकाष्ठा तथा वैराग्य की अनुकूल भूमिका भी थी |
अन्यश्च प्रवृति को दिव्य बनाने के लिए माध्यम भी प्रवृति मार्ग वाले ही व्यक्ति का होना उचित था | इन तथा अन्य अनेकानेक कारणों से त्रिकालदर्शी परमपिता शिव ने उनके तन में प्रवेश किया |
उनके मुख द्वारा ज्ञान एवं योग की शिक्षा लेने वाले सभी ब्रह्माकुमारों एवं ब्रह्माकुमारियों में जो श्रेष्ठ थी, उनका इस अलौकिक जीवन का नाम हुआ – जगदम्बा सरस्वती | वह ‘यज्ञ-माता’ हुई | उन्होंने ज्ञान-वीणा द्वारा जन-जन को प्रभु-परिचय देकर उनमें आध्यात्मिक जागृति लाई | उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और सहज राजयोग द्वारा अनेक मनुष्यात्माओं की ज्योति जगाई | प्रजापिता ब्रह्मा और जगदम्बा सरस्वती ने पवित्र एवं दैवी जीं का आदर्श उपस्थित किया |

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