1. सृष्टि रूपी उल्टा अदभुत वृक्ष और उसके बीजरूप परमात्मा
भगवान ने इस सृष्टि रूपी वृक्ष की तुलना एक उल्टे वृक्ष से की है क्योंकि अन्य वृक्षों के बीज तो पृथ्वी के अंदर बोये जाते है और वृक्ष ऊपर को उगते है परन्तु मनुष्य-सृष्टि रूपी वृक्ष के जो अविनाशी और चेतन बीज स्वरूप परमपिता परमात्मा शिव है, वह स्वयं ऊपर परमधाम अथवा ब्रह्मलोक में निवास करते है |
चित्र में सबसे नीचे कलियुग के अन्त और सतयुग के आरम्भ का संगम दिखलाया गया है | वहाँ श्वेत-वस्त्रधारी प्रजापिता ब्रह्मा, जगदम्बा सरस्वती तथा कुछ ब्राह्मनियाँ और ब्राह्मण सहज राजयोग की स्थिति में बैठे है | इस चित्र द्वारा यह रहस्य प्रकट किया जाता है कि कलियुग के अन्त में अज्ञान रूपी रात्रि के समय, सृष्टि के बीजरूप, कल्याणकारी, ज्ञान-सागर परमपिता परमात्मा शिव नई, पवित्र सृष्टि रचने के संकल्प से प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित (प्रविष्ट) हुए और उनहोंने प्रजापिता ब्रह्मा के कमल-मुख द्वारा मूल गीता-ज्ञान तथा सहज राजयोग की शिक्षा दी, जिसे धारण करने वाले नर-नारी ‘पवित्र ब्राह्मण’ कहलाये | ये ब्राह्मण और ब्राह्मनियाँ – सरस्वती इत्यादि- जिन्हें ही ‘शिव शक्तियाँ’ भी कहा जाता है, प्रजापिता ब्रह्मा के मुख से (ज्ञान द्वारा) उत्पन्न हुए | इस छोटे से युग को ‘संगम युग’ कहा जाता है | वह युग सृष्टि का ‘धर्माऊ युग’ (Leap yuga) भी कहलाता है और इसे ही ‘पुरुषोतम युग’ अथवा ‘गीता युग’ भी कहा जा सकता है |
सतयुग में श्रीलक्ष्मी और श्री नारायण का अटल, अखण्ड, निर्विघ्न और अति सुखकारी राज्य था | प्रसिद्ध है कि उस समय दूध और घी की नदियां बहती थी तथा शेर और गाय भी एक घाट पर पानी पीते थे | उस समय का भारत डबल सिरताज (Double crowned) था | सभी सदा स्वस्थ (Ever healthy), और सदा सुखी (Ever happy) थे | उस समय काम-क्रोधादि विकारों की लड़ाई अथवा हिंसा का तथा अशांति एवं दुखों का नाम-निशान भी नहीं था | उस समय के भारत को ‘स्वर्ग’, ‘वैकुण्ठ’, ‘बहिश्त’, ‘सुखधाम’ अथवा ‘हैवनली एबोड’ (Heavenly Abode) कहा है उस समय सभी जीवनमुक्त और पूज्य थे और उनकी औसत आयु १५० वर्ष थी उस युग के लोगो को ‘देवता वर्ण’ कहा जाता है | पूज्य विश्व-महारानी श्री लक्ष्मी तथा पूज्य विश्व-महाराजन श्री नारायण के सूर्य वंश में कुल 8 सूर्यवंशी महारानी तथा महाराजा हुए जिन्होंने कि 1250 वर्षों तक चक्रवर्ती राज्य किया |
त्रेता युग में श्री सीता और श्री राम चन्द्रवंशी, 14 कला गुणवान और सम्पूर्ण निर्विकारी थे | उनके राज्य की भी भारत में बहुत महिमा है | सतयुग और त्रेतायुग का ‘आदि सनातन देवी-देवता धर्म-वंश’ ही इस मनुष्य सृष्टि रूपी वृक्ष का तना और मूल है जिससे ही बाद में अनेक धर्म रूपी शाखाएं निकली | द्वापर में देह-अभिमान तथा काम क्रोधादि विकारों का प्रादुर्भाव हुआ | देवी स्वभाव का स्थान आसुरी स्वभाव ने लेना शुरू किया | सृष्टि में दुःख और अशान्ति का भी राज्य शरू हुआ | उनसे बचने के लिए मनुष्य ने पूजा तथा भक्ति भी शुरू की | ऋषि लोग शास्त्रों की रचना करने लगे | यज्ञ, तप आदि की शुरात हुई |
कलियुग में लोग परमात्मा शिव की तथा देवताओं की पूजा के अतिरिक्त सूर्य की, पीपल के वृक्ष की, अग्नि की तथा अन्यान्य जड़ तत्वों की पूजा करने लगे और बिल्कुल देह-अभिमानी, विकारी और पतित बन गए | उनका आहार-व्यहार, दृष्टि वृत्ति, मन, वचन और कर्म तमोगुणी और विकाराधीन हो गया |
कलियुग के अन्त में सभी मनुष्य त्मोप्र्धन और आसुरी लक्षणों वाले होते है | अत: सतयुग और त्रेतायुग की सतोगुणी दैवी सृष्टि स्वर्ग (वैकुण्ठ) और उसकी तुलना में द्वापरयुग तथा कलियुग की सृष्टि ही ‘नरक’ है |
भगवान ने इस सृष्टि रूपी वृक्ष की तुलना एक उल्टे वृक्ष से की है क्योंकि अन्य वृक्षों के बीज तो पृथ्वी के अंदर बोये जाते है और वृक्ष ऊपर को उगते है परन्तु मनुष्य-सृष्टि रूपी वृक्ष के जो अविनाशी और चेतन बीज स्वरूप परमपिता परमात्मा शिव है, वह स्वयं ऊपर परमधाम अथवा ब्रह्मलोक में निवास करते है |
चित्र में सबसे नीचे कलियुग के अन्त और सतयुग के आरम्भ का संगम दिखलाया गया है | वहाँ श्वेत-वस्त्रधारी प्रजापिता ब्रह्मा, जगदम्बा सरस्वती तथा कुछ ब्राह्मनियाँ और ब्राह्मण सहज राजयोग की स्थिति में बैठे है | इस चित्र द्वारा यह रहस्य प्रकट किया जाता है कि कलियुग के अन्त में अज्ञान रूपी रात्रि के समय, सृष्टि के बीजरूप, कल्याणकारी, ज्ञान-सागर परमपिता परमात्मा शिव नई, पवित्र सृष्टि रचने के संकल्प से प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित (प्रविष्ट) हुए और उनहोंने प्रजापिता ब्रह्मा के कमल-मुख द्वारा मूल गीता-ज्ञान तथा सहज राजयोग की शिक्षा दी, जिसे धारण करने वाले नर-नारी ‘पवित्र ब्राह्मण’ कहलाये | ये ब्राह्मण और ब्राह्मनियाँ – सरस्वती इत्यादि- जिन्हें ही ‘शिव शक्तियाँ’ भी कहा जाता है, प्रजापिता ब्रह्मा के मुख से (ज्ञान द्वारा) उत्पन्न हुए | इस छोटे से युग को ‘संगम युग’ कहा जाता है | वह युग सृष्टि का ‘धर्माऊ युग’ (Leap yuga) भी कहलाता है और इसे ही ‘पुरुषोतम युग’ अथवा ‘गीता युग’ भी कहा जा सकता है |
सतयुग में श्रीलक्ष्मी और श्री नारायण का अटल, अखण्ड, निर्विघ्न और अति सुखकारी राज्य था | प्रसिद्ध है कि उस समय दूध और घी की नदियां बहती थी तथा शेर और गाय भी एक घाट पर पानी पीते थे | उस समय का भारत डबल सिरताज (Double crowned) था | सभी सदा स्वस्थ (Ever healthy), और सदा सुखी (Ever happy) थे | उस समय काम-क्रोधादि विकारों की लड़ाई अथवा हिंसा का तथा अशांति एवं दुखों का नाम-निशान भी नहीं था | उस समय के भारत को ‘स्वर्ग’, ‘वैकुण्ठ’, ‘बहिश्त’, ‘सुखधाम’ अथवा ‘हैवनली एबोड’ (Heavenly Abode) कहा है उस समय सभी जीवनमुक्त और पूज्य थे और उनकी औसत आयु १५० वर्ष थी उस युग के लोगो को ‘देवता वर्ण’ कहा जाता है | पूज्य विश्व-महारानी श्री लक्ष्मी तथा पूज्य विश्व-महाराजन श्री नारायण के सूर्य वंश में कुल 8 सूर्यवंशी महारानी तथा महाराजा हुए जिन्होंने कि 1250 वर्षों तक चक्रवर्ती राज्य किया |
त्रेता युग में श्री सीता और श्री राम चन्द्रवंशी, 14 कला गुणवान और सम्पूर्ण निर्विकारी थे | उनके राज्य की भी भारत में बहुत महिमा है | सतयुग और त्रेतायुग का ‘आदि सनातन देवी-देवता धर्म-वंश’ ही इस मनुष्य सृष्टि रूपी वृक्ष का तना और मूल है जिससे ही बाद में अनेक धर्म रूपी शाखाएं निकली | द्वापर में देह-अभिमान तथा काम क्रोधादि विकारों का प्रादुर्भाव हुआ | देवी स्वभाव का स्थान आसुरी स्वभाव ने लेना शुरू किया | सृष्टि में दुःख और अशान्ति का भी राज्य शरू हुआ | उनसे बचने के लिए मनुष्य ने पूजा तथा भक्ति भी शुरू की | ऋषि लोग शास्त्रों की रचना करने लगे | यज्ञ, तप आदि की शुरात हुई |
कलियुग में लोग परमात्मा शिव की तथा देवताओं की पूजा के अतिरिक्त सूर्य की, पीपल के वृक्ष की, अग्नि की तथा अन्यान्य जड़ तत्वों की पूजा करने लगे और बिल्कुल देह-अभिमानी, विकारी और पतित बन गए | उनका आहार-व्यहार, दृष्टि वृत्ति, मन, वचन और कर्म तमोगुणी और विकाराधीन हो गया |
कलियुग के अन्त में सभी मनुष्य त्मोप्र्धन और आसुरी लक्षणों वाले होते है | अत: सतयुग और त्रेतायुग की सतोगुणी दैवी सृष्टि स्वर्ग (वैकुण्ठ) और उसकी तुलना में द्वापरयुग तथा कलियुग की सृष्टि ही ‘नरक’ है |
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