Saturday, 19 November 2011

सातारा, दि. 15 : प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली असून दिल्ली येथे एका विशेष समारंभामध्ये इंडिया बुक ऑफ रेकार्डचे मुख्य संपादक विश्वरूपराय चौधरी यांच्या हस्ते त्यांना सन्मानित करण्यात आले. भगवानभाईंनी आतापर्यंत भारतातील विविध प्रांतातील 5000 शाळा, महाविद्यालयांमध्ये जाऊन लाखो विद्यार्थ्यांना मूल्यनिष्ठ शिक्षणाद्वारे नैतिक व अध्यात्मिक विकासासाठी उद्‌बोधन केले आहे. 800 कारागृहांमध्ये जाऊन हजारो कैद्यांना गुन्हेगारी सोडून आपल्या जीवनामध्ये सद्‌भावना, मूल्य तसेच मानवतेला स्थापित करण्यासाठी प्रेरित केले आहे. या कार्याची नोंद घेवून त्यांची या पुरस्कारासाठी निवड करण्यात आली. सत्कारानंतर प्रतिक्रिया व्यक्त करताना ब्र. कु.भगवानभाई म्हणाले, समाजामधील भ्रष्टाचार, व्यसनाधिनता, गुन्हेगारी समाप्त करावयाची असेल तर त्यासाठी शिक्षणामध्ये परिवर्तनाची आवश्यकता आहे. शाळा/ महाविद्यालयांमधूनच समाजाच्या प्रत्येक क्षेत्रामध्ये व्यक्ती प्रवेश करते. आजचा विद्यार्थीच उद्याचा समाज आहे. म्हणूनच समाजाच्या विकासासाठी शिक्षणामध्ये मूल्य व अध्यात्मिकतेचा समावेश करण्याची आवश्यकता आहे. सांगली जिल्ह्यात आटपाडी तालुक्यातील तळेवाडी या छोट्याशा खेड्यात एका निरक्षर व गरीब कुटुंबात जन्मलेल्या भगवानभाईंना लिहिण्या- वाचण्यासाठी वही, पुस्तकेसुध्दा मिळत नव्हती. वयाच्या 11 वर्षी त्यांनी शाळेत जायला सुरूवात केली. ते जुन्या रद्दीमधील वह्यांची कोरी पाने व शाईने लिहिलेली पाने पाण्याने धुवून, सुकवून त्या पानांचा उपयोग लिहिण्यासाठी करीत. अशाच रद्दीमध्ये त्यांना ब्रह्माकुमारी संस्थेच्या एका पुस्तकाची काही पाने मिळाली. या रद्दीतील पानानींच त्यांचे जीवन बदलून गेले. त्या पानावर असलेल्या पत्त्यावरून ते ब्रह्माकुमारीसंस्थेमध्ये पोहचले व तेथील ईश्वरीय ज्ञान व राजयोगाचा अभ्यास करून आपले मनोबल वाढविले व त्या फलस्वरूप माऊंट अबू येथील आपले सेवाकार्य सांभाळून आजपर्यंत त्यांनी 5000 शाळा, महाविद्यालये व 800 कारागृहात जाऊन या सेवेचे एक रेकॉर्ड प्रस्थापित केले. वर्तमानसमयी ब्रह्माकुमार भगवानभाई ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालयाच्या शांतीवन या मुख्यालयातील विशाल किचनमध्ये सेवारत असून अनेक मासिकातून तसेच वृत्तपत्रातून आतापर्यंत 2000 हून अधिक लेख लिहिले आहेत. त्यांना मिळालेल्या या सन्मानाबद्दल सातारा सेवाकेंद्राच्या संचालिका ब्रह्माकुमारी रूक्मिणी बहेनजी व शिक्षणाधिकारी (माध्य.) मकरंद गोंधळी यांनी त्यांचे अभिनंदन केले.


राजयोग का आधार तथा विधि सम्पूर्ण स्थिति को प्राप्त करने के लिए और शीघ्र ही अध्यात्मिक में उन्नति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को राजयोग के निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है, अर्थात चलते फिरते और कार्य-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की स्मृति में स्थित होने को जरुरत है I यद्यपि निरंतर योग के बहुत लाभ है I और निरंतर योग द्वारा ही मनुष्य सर्वोत्तम अवस्था को प्राप्त कर सकता है I तथापि विशेष रूप से योग में बैठना आवश्यक है I इसीलिए चित्र में दिखाया गया है कि परमात्मा को याद करते समय हेम अपनी बुद्धि सब तरफ से हटाकर एक जोतिर्बिंदु परमात्मा शिव से जुटानी चाहिए मान चंचल होने के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार अथवा शास्त्र और गुरुओ की तरफ भागता है I लेकिन अभ्यास के द्वारा हमें इसको एक परमात्मा की याद में ही स्थित करना है I अत: देह सहित देह के सर्व-सम्भंधो को भूल कर आत्म-स्वरूप में स्थित होकर, बुद्धि में जोतिर्बिंदु परमात्मा शिव की स्नेहयुक्त स्मृति में रहना ही वास्तविक योग है जैसा की चित्र में दिखलाया गया है I कई मनुष्य योग को बहुत कठिन समझते है, वे कई प्रकार की हाथ क्रियाएं तप अथवा प्राणायाम करते रहते है I लेकिन वास्तव में "योग" अति सहज है जैसे की एक बच्चे को अपने देहधारी पिता की सहज और स्वत: याद रहती है वैसे ही आत्मा को अपने पिता परमात्मा की याद स्वत: और सहज होनी चाहिए इस अभ्यास के लिए यह सोचना चाहिए कि- " मैं एक आत्मा हूँ, मैं ज्योति -बिंदु परमात्मा शिव की अविनाशी संतान हूँ जो परमपिता ब्रह्मलोक के वासी है, शांति के सागर, आनंद के सागर प्रेम के सागर और सर्वशक्तिमान है --I " ऐसा मनन करते हुए मन को ब्रह्मलोक में परमपिता परमात्मा शिव पर स्थित करना चाहिए और परमात्मा के दिव्य-गुणों और कर्तव्यो का ध्यान करना चाहिए I जब मन में इस प्रकार की स्मृति में स्थित होगा I तब सांसारिक संबंधो अथवा वस्तुओं का आकर्षण अनुभव नहीं होगा जितना ही परमात्मा द्वारा सिखाया गये ज्ञान में निश्चय होगा, उतना ही सांसारिक विचार और लौकिक संबंधियों की याद मन में नही आयेगी I और उतना ही अपने स्वरूप का परमप्रिय परमात्मा के गुणों का अनुभव होगा I आज बहुत से लोग कहते है कि हमारा मन परमात्मा कि स्मृति में नही टिकता अथवा हमारा योग नही लगता इसका एक कारण तो यह है कि वे " आत्म-निश्चय" में स्थित नही होते आप जानते है कि जब बिजली के दो तारो को जोड़ना होता है तब उनके ऊपर के रबड़ को हटाना पड़ता है, तभी उनमे करंट आता है इसी प्रकार, यदि कोई निज देह के बहन में होगा तो उसे भी अव्यक्त अनुभूति नही होगी, उसके मन की तार परमात्मा से नही जुड़ सकती I दूसरी बात यह है कि वे तो परमात्मा को नाम-रूप से न्यारा व् सर्वव्यापक मानते है, अत: वे मन को कोई ठिकाना भी नही दे सकते I परन्तु अब तो यह स्पष्ट किया गया है कि परमात्मा का दिव्य-नाम शिव, दिव्य-रूप ज्योति-बिंदु और दिव्यधाम परमधाम अथवा ब्रह्मलोक है अत: वहा मन को टिकाया जा सकता है I तीसरी बात यह है कि उन्हें परमात्मा के साथ अपने घनिष्ट सम्बन्ध का भी परिचय नही है, इसी कारण परमात्मा के प्रति उनके मन में घनिष्ट स्नेह नही अब यह ज्ञान हो जाने पर हमे ब्रह्मलोक के वासी परमप्रिय परमपिता शिव-जोती-बिंदु कि स्मृति में रहना चाहिए I

  राजयोग का आधार तथा विधि 

      सम्पूर्ण स्थिति को प्राप्त करने के लिए और शीघ्र ही अध्यात्मिक में उन्नति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को राजयोग के निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है, अर्थात चलते फिरते और कार्य-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की स्मृति में स्थित होने को जरुरत है I

     यद्यपि निरंतर योग के बहुत लाभ है I और निरंतर योग द्वारा ही मनुष्य सर्वोत्तम अवस्था को प्राप्त कर सकता है I तथापि विशेष रूप से योग में बैठना आवश्यक है I इसीलिए चित्र में दिखाया गया है कि परमात्मा को याद करते समय हेम अपनी बुद्धि सब तरफ से हटाकर एक जोतिर्बिंदु परमात्मा शिव से जुटानी चाहिए मान चंचल होने के कारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार अथवा शास्त्र और गुरुओ की तरफ भागता है I लेकिन अभ्यास के द्वारा हमें इसको एक परमात्मा की याद में ही स्थित करना है I अत: देह सहित देह के सर्व-सम्भंधो को भूल कर आत्म-स्वरूप में स्थित होकर, बुद्धि में जोतिर्बिंदु परमात्मा शिव की स्नेहयुक्त स्मृति में रहना ही वास्तविक योग है जैसा की चित्र में दिखलाया गया है I
         कई मनुष्य योग को बहुत कठिन समझते है, वे कई प्रकार की हाथ क्रियाएं तप अथवा प्राणायाम करते रहते है I लेकिन वास्तव में "योग"  अति सहज है जैसे की एक बच्चे को अपने देहधारी पिता की सहज और स्वत: याद रहती है वैसे ही आत्मा को अपने पिता परमात्मा की याद स्वत: और सहज होनी चाहिए इस अभ्यास के लिए यह सोचना चाहिए कि- " मैं एक आत्मा हूँ, मैं ज्योति -बिंदु परमात्मा शिव  की अविनाशी संतान हूँ जो परमपिता ब्रह्मलोक के वासी है, शांति के सागर, आनंद  के सागर प्रेम के सागर और सर्वशक्तिमान है --I " ऐसा मनन करते हुए मन को  ब्रह्मलोक में परमपिता परमात्मा शिव पर स्थित करना चाहिए और परमात्मा के दिव्य-गुणों और कर्तव्यो का ध्यान करना चाहिए I 
          जब मन में इस प्रकार की स्मृति में स्थित होगा I तब सांसारिक संबंधो अथवा वस्तुओं का आकर्षण अनुभव नहीं होगा जितना ही परमात्मा द्वारा सिखाया  गये ज्ञान में निश्चय होगा, उतना ही सांसारिक विचार और लौकिक संबंधियों  की याद मन में नही आयेगी I और उतना ही अपने स्वरूप का परमप्रिय परमात्मा के गुणों का अनुभव होगा I 
         आज बहुत से लोग कहते है कि हमारा मन परमात्मा कि स्मृति में नही टिकता अथवा हमारा योग नही लगता इसका एक कारण तो यह है  कि वे " आत्म-निश्चय" में स्थित नही होते आप जानते  है कि जब बिजली के दो तारो को जोड़ना होता है तब उनके ऊपर के रबड़ को हटाना पड़ता है, तभी उनमे करंट आता है इसी प्रकार, यदि कोई निज देह के बहन में होगा तो उसे भी अव्यक्त अनुभूति नही होगी, उसके मन की तार परमात्मा से नही जुड़ सकती I
         दूसरी बात यह है कि वे तो परमात्मा को नाम-रूप से न्यारा व् सर्वव्यापक मानते है, अत: वे मन को कोई ठिकाना भी नही दे सकते I परन्तु अब तो यह स्पष्ट किया गया है कि परमात्मा का दिव्य-नाम शिव, दिव्य-रूप ज्योति-बिंदु और दिव्यधाम परमधाम अथवा ब्रह्मलोक है अत: वहा मन को टिकाया जा सकता है I
         तीसरी बात यह है कि उन्हें परमात्मा के साथ अपने घनिष्ट सम्बन्ध  का भी परिचय  नही है, इसी कारण परमात्मा के प्रति उनके मन में घनिष्ट स्नेह नही अब यह ज्ञान हो जाने पर हमे ब्रह्मलोक के वासी परमप्रिय परमपिता शिव-जोती-बिंदु कि स्मृति में रहना चाहिए I

राजयोग से प्राप्ति--अष्ट शक्तियां राज्यों के अभ्यास से, अर्थात मन का नाता परमपिता परमात्मा के साथ जोड़ने से, अविनाशी सुख-शांति कि प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही कई प्रकार की अध्यात्मिक शक्तियां भी आ जाती है इनमे से आठ मुख्य और बहुत ही महत्वपूर्ण हैI इनमे से एक है " सिकोड़ने और फैलानी की शक्ति" जैसे कछुआ अपने अंगो को जब चाहे सिकोड़ लेता है, जब चाहे उन्हें फैला लेता है, वैसे ही राजयोगी जब चाहे अपनी इच्छानुसार अपनी कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्म करता है और जब चाहे विदेही एवं शांत अवस्था में रह सकता है I इस प्रकार विदेही अवस्था में रहने से उस पर माया का वार नही होगा I दूसरी शक्ति है -" समेटने की शक्ति" इस संसार को मुसाफिर खाना तो सभी कहते है लेकिन व्यवहारिक जीवन में वे इतना तो विस्तार कर लेते है कि अपने कार्य और बुद्धि को समेटना चाहते हुए भी समेत नही पाते, जबकि योगी अपनी बुद्धि को इस विशाल दुनिया में न फैला कर एक परमपिता परमात्मा की तथा आत्मिक सम्बन्ध की याद में ही अपनी बुद्धि को लगाये रखता है I वह कलियुगी संसार से अपनी बुद्धि और संकल्पों का बिस्तर व् पेटी समेटकर सदा अपने घर-परमधाम- में चलने को तैयार रहता है I तीसरी शक्ति है " सहन शक्ति" जैसे वृक्ष पर पत्थर मारने पर भी मीठे फल देता है और अपकार करने वाले पर भी उपकार करता है, वैसे ही एक योगी भी सदा अपकार करने वालो के प्रति भी शुभ भावना और कामना ही रखता है I योग से जो चोथी शक्ति प्राप्त होती है वह है "समाने की शक्ति" योग का अभ्यास मनुष्य की बुद्धि विशाल बना देता है और मनुष्य गभीरता और मर्यादा का गुण धारण करता है I थोड़ी सी खुशिया, मान, पद पाकर वह अभ्मानी नही बन जाता और न ही किसी प्रकार की कमी आने पर या हानि होने के अवसर पर दुखी होता है वह तो समुद्र की तरह सदा अपने दैवी कुल की मर्यादा में बंधा रहता है और गंभीर अवस्था में रहकर दूसरी आत्माओं के अवगुणों को न देखते हुए केवल उनसे गुण ही धारण करता है I योग से जो अन्य शक्ति जो मिलती है वह है " परखने की शक्ति" जैसे एक पारखी ( जौहरी) अभुश्नो को कसौटी पर परखकर उसकी असल और नक़ल को जन जाता है, इसे ही योगी भी, किसी भी मनुष्यात्मा के संपर्क में आने से उसको परख लेता है और उससे सच्चाई या झूठ कभी छिपा नही रह सकता I वह तो सदा सच्चे ज्ञान-रत्नों को ही अपनाता है तथा अज्ञानता के झूठे कंकड़, पत्थरों में अपनी बुद्धि नही फसाता I एक योगी को महान निर्णय शक्ति भी स्वत: प्राप्त हो जाती है I वह उचित और अनुचित बात का शीघ्र ही निर्णय कर लेता है I वह व्यर्थ सकल्प और परचिन्तन से मुक्त होकर सदा प्रभु चिंतन में रहता है I योग के अभ्यास से मनुष्य को " सामना करने की शक्ति" भी प्राप्त होती है I यदि उसके सामने अपने निकट सम्बन्धी की मृत्यु-जैसी आपदा आ भी जाये अथवा सांसारिक समस्याए तूफान का रूप भी धारण कर ले तो भी वह कभी विचलित नही होता और उसका आत्मा रूपी दीपक सदा ही जलता रहता है तथा अन्य आत्माओं को ज्ञान-प्रकाश देता रहता है I अन्य शक्ति, जो योग के अभ्यास से प्राप्त होती है, वह है " सहयोग की शक्ति" एक योगी अपने तन,मन, धन से तो ईश्वरीय सेवा करता ही है, साथ ही उसे अन्य आत्माओं का भी सहयोग स्वत: प्राप्त होता है, जिस कारण वे कलियुगी पहाड़ ( विकारी संसार) को उठाने में अपनी पवित्र जीवन रूपी अंगुली देकर स्वर्ग की स्थापने के पहाड़ समान कार्य में सहयोगी बन जाते है I

राजयोग से प्राप्ति--अष्ट शक्तियां 

  राज्यों के अभ्यास से, अर्थात मन का नाता परमपिता  परमात्मा के साथ जोड़ने से, अविनाशी सुख-शांति कि प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही कई प्रकार की अध्यात्मिक शक्तियां भी आ जाती है  इनमे से आठ मुख्य और बहुत ही महत्वपूर्ण हैI
         इनमे से एक है " सिकोड़ने और फैलानी की शक्ति" जैसे कछुआ अपने अंगो को जब चाहे सिकोड़ लेता है, जब चाहे उन्हें फैला लेता है, वैसे ही राजयोगी जब चाहे अपनी इच्छानुसार अपनी कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्म करता है और जब चाहे विदेही एवं शांत अवस्था में रह सकता है I इस प्रकार विदेही अवस्था में रहने से उस पर माया का वार नही होगा I
           दूसरी शक्ति है -" समेटने की शक्ति" इस संसार को मुसाफिर खाना तो सभी कहते है लेकिन व्यवहारिक जीवन में वे इतना तो विस्तार कर लेते है कि अपने कार्य और बुद्धि को समेटना चाहते हुए भी समेत नही पाते, जबकि योगी अपनी बुद्धि को इस विशाल दुनिया में न फैला कर एक परमपिता परमात्मा की तथा आत्मिक सम्बन्ध की याद में ही अपनी बुद्धि को लगाये रखता है I वह कलियुगी संसार से अपनी बुद्धि और संकल्पों का बिस्तर व् पेटी समेटकर सदा अपने घर-परमधाम- में चलने को तैयार रहता है I तीसरी शक्ति है " सहन शक्ति" जैसे वृक्ष पर पत्थर मारने पर भी मीठे फल देता  है और  अपकार करने वाले पर भी उपकार करता है, वैसे ही एक योगी भी सदा अपकार करने वालो के प्रति भी शुभ भावना और कामना ही रखता है I
           योग से जो चोथी शक्ति प्राप्त होती है  वह है "समाने की शक्ति"  योग का अभ्यास मनुष्य की बुद्धि विशाल बना  देता  है और मनुष्य   गभीरता  और मर्यादा  का गुण  धारण  करता है I थोड़ी  सी  खुशिया, मान, पद पाकर वह अभ्मानी नही  बन जाता और न ही किसी प्रकार की कमी आने पर या हानि होने के अवसर पर दुखी होता है वह तो समुद्र की तरह सदा अपने दैवी कुल की मर्यादा में बंधा रहता है और गंभीर अवस्था में रहकर दूसरी आत्माओं के अवगुणों को न देखते हुए केवल उनसे गुण ही धारण करता है  I
          योग से जो अन्य शक्ति जो मिलती है वह है " परखने की शक्ति" जैसे एक पारखी ( जौहरी) अभुश्नो को कसौटी पर परखकर उसकी असल और नक़ल को जन जाता है, इसे ही योगी भी, किसी भी मनुष्यात्मा के संपर्क में आने से उसको परख लेता है और  उससे सच्चाई या झूठ कभी छिपा नही रह सकता I वह तो सदा सच्चे ज्ञान-रत्नों को ही अपनाता है तथा अज्ञानता के झूठे कंकड़, पत्थरों में अपनी बुद्धि नही फसाता I
         एक योगी को महान निर्णय शक्ति भी स्वत: प्राप्त हो जाती है I वह उचित और अनुचित बात का शीघ्र  ही निर्णय कर लेता है I वह व्यर्थ सकल्प और परचिन्तन से मुक्त होकर सदा प्रभु चिंतन में रहता है I योग के अभ्यास से मनुष्य को " सामना करने की शक्ति" भी प्राप्त होती है I यदि उसके सामने अपने निकट सम्बन्धी की मृत्यु-जैसी आपदा आ भी जाये अथवा सांसारिक समस्याए तूफान का रूप भी धारण कर ले तो भी वह कभी विचलित नही होता और उसका आत्मा रूपी दीपक सदा ही जलता रहता है तथा अन्य आत्माओं को ज्ञान-प्रकाश देता रहता है I
         अन्य शक्ति, जो योग के अभ्यास से प्राप्त होती है, वह है " सहयोग की शक्ति" एक योगी अपने तन,मन, धन से तो ईश्वरीय सेवा करता ही है, साथ ही उसे अन्य आत्माओं का भी सहयोग स्वत: प्राप्त होता है, जिस कारण वे कलियुगी पहाड़ ( विकारी संसार) को उठाने में अपनी पवित्र जीवन रूपी अंगुली देकर स्वर्ग की स्थापने के पहाड़ समान कार्य में सहयोगी बन जाते है I

Wednesday, 16 November 2011

जीवन कमल पुष्प समान कैसे बनायें ? स्नेह और सौहाद्र के प्रभाव के कारण आज मनुष्य को घर में घर-जैसा अनुभव नहीं होता I एक मामूली कारण से घर का पूरा वातावरण बिगड़ जाता है I अब मनुष्य की वफ़ादारी और विश्वास्पात्रता भी टिकाऊ और दृढ़ नहीं रहे I नैतिक मूल्य अपने स्तर से काफी गिर गए है I कार्यालय हो या व्यवसाय, घर हो या रसोई, अब हर जगह परस्पर संबंधो को सुधारने, स्वयं को उससे ढालने और मिलजुल कर चलने की जरुरत है I अपनी स्थिति को निर्दोष एवं संतुलित बनाये रखने के लिए हर मानव को आज बहुत मनोबल इकट्ठा करने की आवशयकता है I इसके लिए योग बहुत ही सहायक हो सकता है I जो ब्रह्माकुमार है, वे दुसरो को भी शांति का मार्ग दर्शाना एक सेवा अथवा अपना कर्तव्य समझते है I ब्रह्माकुमार जन-जन को यह ज्ञान दे रहा है कि "शांति" पवित्र जीवन का एक फल है और पवित्रता एवं शांति के लिए परमपिता परमात्मा का परिचय तथा उनके साथ मान का नाता जोड़ना जरुरी है I अत: वह उन्हें राजयोग-केंद्र अथवा ईश्वरीय मनन चिंतन केंद्र पर पधारने के लिए आमंत्रित करता है, जहाँ उन्हें यह आवश्यक ज्ञान दिया जाता है कि राजयोग का अभ्यास कैसे करे और जीवन को कमल पुष्प के समान कैसे बनाये इस ज्ञान और योग को समझने का फल यह होता है कि कोई कार्यालय में काम कर रहा हो या रसोई में कार्यरत हो तो भी मनुष्य शांति के सागर परमात्मा के साथ स्वयं का सम्बन्ध स्थापित कर सकता है I इस सब का श्रेष्ठ परिणाम यह होता है कि सारा परिवार प्यार और शांति के सूत्र में पिरो जाता है, वे सभी वातावरण में आन्नद एवं शांति का अनुभव करते है और अब वह परिवार एक सुव्यवस्थित एवं संगठित परिवार बन जाता है I दिव्य ज्ञान के द्वारा मनुष्य विकार तो छोड़ देता है और गुण धारण कर लेता है I इसके लिए, जिस मनोबल की जरुरत होती है, वह मनुष्य को योग से मिलता है I इस प्रकार मनुष्य अपने जीवन को कमल पुष्प के समान बनाने के योग्य हो जाता है I कमल की यह विशेषता है कि वह जल में रहते हुए जल से नायर होकर रहता है I हालाँकि कमल के अन्य सम्बन्धी, जैसे कि कमल ककड़ी, कमल डोडा इत्यादि है, परन्तु फिर भी कमल उन सभी से ऊपर उठकर रहता है I इसी प्रकार हमें भी अपने सम्बंधियो एवं मित्रजनो के बीच रहते हुए उनसे भी न्यारा, अर्थात मोह्जीत होकर रहना चाहिए I कुछ लोग कहते है कि गृहस्थ में ऐसा होना असम्भव है I परन्तु हम देखते है कि अस्पताल में नर्स अनेक बच्चो को सँभालते हुए भी उनमे मोह-रहित होती है I इसे ही हमें भी चाहिए कि हम सभी को परमपिता परमात्मा के वत्स मानकर न्यासी ( ट्रस्टी ) होकर उनसे व्यवहार करे I एक न्यायाधीश भी ख़ुशी या गमी के निर्णय सुनाता है, परन्तु वह स्वयं उनके प्रभावाधीन नहीं होता I ऐसे ही हम भी सुख-दुःख कि परिस्थितियों में साक्षी होकर रहे, इसी के लिए हमें सहज राजयोग सिखने कि आवश्यकता है I


Tuesday, 15 November 2011

गीता-ज्ञान हिंसक युद्ध करने के लिए नहीं दिया गया था आज परमात्मा के दिव्य जन्म और "रथ" के स्वरुप को न जानने के कारण लोगो कि यह मान्यता दृढ़ है कि गीता-ज्ञान श्रीक्रष्ण ने अर्जुन के रथ एम् सवार होकर लड़ाई के मैदान में दिया आप ही सोचिये कि जबकि अहिंसा को धर्म का परम लक्षण माना गया है और जबकि धर्मात्मा अथवा महात्मा लोग नहो अहिंसा का पालन करते और अहिंसा की शिक्षा देते है तब क्या भगवान नव भला किसी हिंसक युद्ध के लिए किसी को शिक्षा दी होगी ? जबकि लौकिक पिता भी अपने बच्चो को यह शिक्षा देता है कि परस्पर न लड़ो तो क्या सृष्टि के परमपिता, शांति के सागर परमात्मा ने मनुष्यो को परस्पर लड़ाया होगा ! यह तो कदापि नहीं हो सकता भगवान तो देवी स्वभाव वाले संप्रदाय की तथा सर्वोत्तम धर्म की स्थापना के लिए ही गीता-ज्ञान देते है और उससे तो मनुष्य राग, द्वेष, हिंसा और क्रोध इत्यादि पर विजय प्राप्त करते है I अत: वास्तविकता यह है कि निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने इस सृष्टि रूपी कर्मक्षेत्र अथवा कुरुक्षेत्र पर, प्रजापिता बह्मा ( अर्जुन) के शरीर रूपी रथ में सवार होकर माया अर्थात विकारो से ही युद्ध करने कि शिक्षा दी थी , परन्तु लेखक ने बाद में अलंकारिक भाषा में इसका वर्णन किया तथा चित्रकारों ने बाद में शरीर को रथ के रूप में अंकित करके प्रजापिता ब्रह्मा की आत्मा को भी उस रथ में एक मनुष्य ( अर्जुन) के रूप में चित्रित किया I बाद में वास्तविक रहस्य प्राय:लुप्त हो गया और स्थूल अर्थ ही प्रचलित हो गया I संगम युग में भगवान शिव ने जब प्रजापिता ब्रह्मा के तन रूपी रथ में अवतरित होकर ज्ञान दिया और धर्म की स्थापना की, तब उसके पश्चात् कलियुगी सृष्टि का महाविनाश हो गया और सतयुग स्थापन हुआ I अत: सर्व-महान परिवर्तन के कारण बाद में यह वास्तविक रहस्य प्रय्लुप्त हो गया I फिर जब द्वापरयुग के भक्तिकाल में गीता लिखी गयी तो बहुत पहले ( संगमयुग में) हो चुके इस वृतांत का रूपांतरण व्यास ने वर्तमानकाल का प्रयोग करके किया तो समयांतर में गीता-ज्ञान को भी व्यास के जीवन-काल में, अर्थात " द्वापरयुग" में दिया गया ज्ञान मान लिया परन्तु इस भूल से संसार में बहुत बड़ी हानि हुई क्योंकि लोगो को यह रहस्य ठीक रीति से मालूम होता कि गीता-ज्ञान निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने दिया जो कि श्रीकृष्ण के भी परलौकिक पिता है और सभी धर्मो के अनुयायियों के परम पूज्य तथा सबके एकमात्र सादगति दाता तथा राज्य-भग्य देने वाले है, तो सभी धर्मो के अनुयायी गीता को ही संसार का सर्वोत्तम शास्त्र मानते तथा उनके महावाक्यो को परमपिता के महावाक्य मानकर उनको शिरोधार्य करते और वे भारत को ही अपना सर्वोत्तम तीर्थ मानते अथ: शिव जयंती को गीता -जयंती तथा गीता जयंती को शिव जयंती के रूप में भी मानते I वे एक ज्योतिस्वरूप, निराकार परमपिता, परमात्मा शिव से ही योग-युक्त होकर पावन बन जाते तथा उससे सुख-शांति की पूर्ण विरासत ले लेते परन्तु आज उपर्युक्त सवोत्तम रहस्यों को न जानने के कारण और गीता माता के पति सर्व मान्य निराकार परमपिता शिव के स्थान पर गीता-पुत्र श्रीकृष्ण देवता का नाम लिख देने के कारण गीता का ही खंडन हो गया और संसार में घोर अनर्थ, हाहाकार तथा पापाचार हो गया है और लोग एक निराकार परमपिता की आज्ञा ( मन्मना भव अर्थात एक मुझ हो को याद करो ) को भूलकर व्यभिचारी बुद्धि वाले हो गए है ! ! आज फिर से उपर्युक्त रहस्य को जानकर परमपिता परमात्मा शिव से योग-युक्त होने से पुन: इस भारत में श्रीकृष्ण अथवा श्रीनारायण का सुखदायी स्वराज्य स्थापन हो सकता है और हो रहा है I

गीता-ज्ञान हिंसक युद्ध करने के लिए नहीं दिया गया था 

आज परमात्मा के दिव्य जन्म और "रथ" के स्वरुप को न जानने के कारण लोगो कि यह मान्यता दृढ़   है कि  गीता-ज्ञान श्रीक्रष्ण ने अर्जुन के रथ एम् सवार होकर लड़ाई के मैदान में दिया आप ही सोचिये कि जबकि अहिंसा को धर्म का परम लक्षण माना गया है और जबकि धर्मात्मा अथवा महात्मा लोग नहो अहिंसा का पालन करते और अहिंसा की शिक्षा देते है तब क्या भगवान नव भला किसी हिंसक युद्ध के लिए किसी को शिक्षा दी होगी ? जबकि लौकिक पिता भी अपने बच्चो को यह शिक्षा देता है कि परस्पर न लड़ो तो क्या सृष्टि के परमपिता, शांति के सागर परमात्मा ने मनुष्यो को परस्पर लड़ाया होगा ! यह तो कदापि नहीं हो सकता भगवान तो देवी स्वभाव वाले संप्रदाय की तथा सर्वोत्तम धर्म की स्थापना  के लिए ही गीता-ज्ञान देते  है और उससे  तो मनुष्य राग, द्वेष, हिंसा और क्रोध इत्यादि पर विजय प्राप्त करते है I अत: वास्तविकता  यह है कि निराकार  परमपिता परमात्मा शिव ने इस सृष्टि रूपी कर्मक्षेत्र अथवा कुरुक्षेत्र  पर, प्रजापिता बह्मा ( अर्जुन) के शरीर रूपी रथ में सवार होकर माया अर्थात विकारो से ही युद्ध करने कि शिक्षा दी थी , परन्तु लेखक ने बाद में अलंकारिक भाषा में इसका वर्णन किया तथा चित्रकारों ने बाद में शरीर को रथ के रूप में अंकित  करके प्रजापिता ब्रह्मा की आत्मा को भी उस रथ में एक मनुष्य ( अर्जुन) के रूप में चित्रित किया I बाद में वास्तविक रहस्य प्राय:लुप्त हो गया और स्थूल अर्थ ही प्रचलित हो गया I
              संगम युग में भगवान शिव ने जब प्रजापिता ब्रह्मा के तन रूपी रथ में अवतरित होकर ज्ञान दिया और धर्म की स्थापना की, तब उसके पश्चात् कलियुगी सृष्टि का महाविनाश हो गया और सतयुग स्थापन हुआ I अत: सर्व-महान परिवर्तन के कारण बाद में यह वास्तविक रहस्य प्रय्लुप्त हो गया I फिर जब द्वापरयुग के भक्तिकाल में गीता लिखी गयी तो बहुत पहले ( संगमयुग में) हो चुके इस वृतांत का रूपांतरण व्यास ने वर्तमानकाल का प्रयोग करके किया तो समयांतर में गीता-ज्ञान को भी व्यास के जीवन-काल में, अर्थात " द्वापरयुग" में दिया गया ज्ञान मान लिया परन्तु इस भूल से संसार में बहुत बड़ी हानि हुई क्योंकि लोगो को यह रहस्य ठीक रीति से मालूम होता कि गीता-ज्ञान निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने दिया जो कि श्रीकृष्ण के भी परलौकिक पिता है और सभी धर्मो के अनुयायियों के परम पूज्य तथा सबके एकमात्र सादगति दाता तथा राज्य-भग्य देने वाले है, तो सभी धर्मो के अनुयायी गीता को ही संसार का सर्वोत्तम शास्त्र मानते तथा उनके महावाक्यो को परमपिता के महावाक्य मानकर उनको शिरोधार्य  करते और वे भारत को ही अपना सर्वोत्तम तीर्थ मानते अथ:   शिव जयंती को गीता -जयंती तथा गीता जयंती को शिव जयंती के रूप में भी मानते I वे एक ज्योतिस्वरूप, निराकार परमपिता, परमात्मा शिव से ही योग-युक्त होकर पावन बन जाते तथा उससे सुख-शांति की पूर्ण विरासत ले लेते परन्तु आज उपर्युक्त सवोत्तम रहस्यों को न जानने के कारण और गीता माता के पति सर्व मान्य निराकार परमपिता शिव के स्थान पर गीता-पुत्र श्रीकृष्ण देवता का नाम लिख देने के कारण गीता का ही खंडन हो गया और संसार में घोर अनर्थ, हाहाकार तथा पापाचार हो गया है और लोग एक निराकार परमपिता की आज्ञा ( मन्मना भव अर्थात  एक मुझ हो को याद करो ) को भूलकर व्यभिचारी बुद्धि वाले हो गए है ! ! आज फिर से उपर्युक्त रहस्य को जानकर परमपिता परमात्मा शिव से योग-युक्त होने से पुन: इस भारत में श्रीकृष्ण अथवा श्रीनारायण का सुखदायी स्वराज्य स्थापन हो सकता है और हो रहा है I

सर्वशास्त्र शिरोमणि श्रीमद भगवद गीता का ज्ञान-दाता कौन है ? यह कितने आश्चर्य की बात है कि आज मनुष्यमात्र को यह भी नही मालूम की परमप्रिय परमात्मा शिव, जिन्हें " ज्ञान का सागर" तथा " कल्यानकारी " माना जाता है, ने मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए जो ज्ञान दिया, उसका शास्त्र कौनसा है ? भारत में यद्यपि गीता ज्ञान को भगवान द्वारा दिया हुआ ज्ञान माना जाता है, तो आज भी सभी लोग यही मानते है गीता गया श्रीकृष्ण ने द्वापर युग के अंत में युद्ध के मैदान में, अर्जुन के रथ पर सवार होकर दिया था I गीता-ज्ञान द्वापर युग में नही दिया गया बल्कि संगम युग में दिया गया चित्र में यह अदभुत रहस्य चित्रित किया गया है कि वास्तव में गीता-ज्ञान निराकार, परमपिता परमात्मा शिव ने दिया था I और फिर गीता ज्ञान से सतयुग में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ I अत: गोपेश्वर परमपिता शिव श्रीकृष्ण के भी परलौकिक पिता है और गीता श्रीकृष्ण कि भी माता है I यह तो सभी जानते है कि गीता-ज्ञान देने का उद्देश पृथ्वी पर धर्म की पुन: स्थापना ही था I गीता में भगवान ने स्पष्ट कहा है कि " मै अधर्म का विनाश तथा सत्यधर्म कि स्थापनार्थ ही अवतरित होता हूँ I " अत: भगवान के अवतरित होने तथा गीता ज्ञान देने के बाद तो धर्म की तथ देवी स्वभाव वाले सम्प्रदाय की पुन: स्थापना होनी चाहिए परन्तु सभी जानते और मानते है की द्वापरयुग के बाद तो कलियुग ही शुरू हुआ जिसमे तो धर्म की अधिक हनी हुई और मनुष्यों का स्वभाव तमोप्रधान अथवा आसुरी ही हुआ अत: जो लोग यह मानते है कि भगवान ने गीता ज्ञान द्वापरयुग के अंत में दिया, उन्हें सोचना चाहिए कि क्या गीता ज्ञान देने और भगवान के अवतरित होने का यही फल हुआ ? क्या गीता ज्ञान देने के बाद अधर्म का युग प्रारम्भ हुआ ? सपष्ट है कि उनका विवेक इस प्रश्न का uttar "न" शब्द से ही देगा I भगवान के अवतरण होने के बाद कलियुग का प्रारंभ मानना तो भगवान की ग्लानी करना है क्योंकि भगवान का यथार्थ परिचय तो यह है कि वे अवतरित होकर पृथ्वी को असुरो से खाली करते है I और यहाँ धर्म को पूर्ण कलाओं सहित स्थापित करके तथा नर को श्रीनारायण मनुष्य की सदगति करते है I भगवान तो सृष्टि के " बीज रूप " है तथा स्वरुप है, अत: इसी धरती पर उनके आने के पश्चात् तो नए सृष्टि-वृक्ष, अर्थात नई सतयुगी सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है I इसके अतिरिक्त, यदि द्वापर के अंत में गीता ज्ञान दिया गया होता तो कलियुग के तमोप्रधान काल में तो उसकी प्रारब्ध ही न भोगी जा सकती I आज भी आप सीखते है कि दिवाली के दिनों में श्री लक्ष्मी का आह्वान करने के लिए भारतवासी अपने घरो को साफसुथरा करते है तथा दीपक आदि जलाते है इससे स्पष्ट है कि अपवित्रता और अंधकार वाले स्थान पर तो देवता अपने चरण भी नहीं धरते I अत: श्रीकृष्ण का अर्थात लक्ष्मीपति श्रीनारायण का जन्म द्वापर में मानना महान भूल है I उनका जन्म तो सतयुग में हुआ जबकि सभी मित्र -सम्बन्धी तथा प्रकृति-पदार्थ सतोप्रधन एवं दिव्य थे और सभी का आत्मा-रूपी दीपक जगा हुआ था तथा सृष्टि में कोई भी म्लेच्छ तथा क्लेश न था I अत: उपर्युक्त से स्पष्ट है कि न तो श्रीकृष ही द्वापरयुग में हुए और न ही गीता-ज्ञान द्वापर युग के अंत में दिया गया बल्कि निराकार, पतितपावन परमात्मा शिव ने कलियुग के अंत और सतयुग के आदि के संगम समय, दर्म-ग्लानी के समय, बह्मा तन में दिव्य जन्म लिया और गीता -ज्ञान देकर सतयुग कि तथा श्रीकृष्ण ( श्रीनारायण) के स्वराज्य कि स्थापना कि श्रीकृष्ण के तो अपने माता-पिता, शिक्षक थे परन्तु गीता-ज्ञान सर्व आत्माओं के माता-पिता शिव ने दिया I

   सर्वशास्त्र शिरोमणि श्रीमद भगवद गीता का  

   ज्ञान-दाता कौन है ? 
यह कितने आश्चर्य  की बात है कि आज मनुष्यमात्र को यह भी नही मालूम की परमप्रिय परमात्मा शिव, जिन्हें " ज्ञान का सागर" तथा " कल्यानकारी  " माना जाता है, ने  मनुष्यमात्र  के कल्याण के लिए जो ज्ञान दिया, उसका शास्त्र कौनसा है ? भारत में यद्यपि गीता ज्ञान को भगवान द्वारा दिया हुआ ज्ञान माना जाता है, तो आज भी सभी लोग यही मानते है गीता गया श्रीकृष्ण ने द्वापर युग के अंत में युद्ध के मैदान में, अर्जुन के रथ पर सवार होकर दिया था I 

                                 गीता-ज्ञान द्वापर युग में नही दिया गया बल्कि संगम युग में दिया गया 
  चित्र में यह अदभुत रहस्य चित्रित किया गया है कि वास्तव में गीता-ज्ञान निराकार, परमपिता परमात्मा शिव ने दिया था I और फिर गीता ज्ञान से सतयुग में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ I अत: गोपेश्वर परमपिता शिव श्रीकृष्ण के भी परलौकिक पिता है और गीता श्रीकृष्ण कि भी माता है I 
     यह तो सभी जानते है कि गीता-ज्ञान देने का उद्देश पृथ्वी पर धर्म की पुन: स्थापना ही था I गीता में भगवान ने स्पष्ट कहा है कि  " मै अधर्म का विनाश तथा सत्यधर्म कि स्थापनार्थ  ही अवतरित होता हूँ I " अत: भगवान के  अवतरित होने तथा गीता ज्ञान देने के बाद तो धर्म की तथ देवी स्वभाव वाले सम्प्रदाय की पुन: स्थापना होनी चाहिए  परन्तु सभी जानते और मानते है की द्वापरयुग के बाद तो कलियुग ही शुरू हुआ जिसमे तो धर्म की अधिक हनी हुई और मनुष्यों का स्वभाव तमोप्रधान  अथवा आसुरी ही हुआ अत: जो लोग यह मानते है कि भगवान ने गीता ज्ञान द्वापरयुग के अंत में दिया, उन्हें सोचना चाहिए कि क्या गीता ज्ञान देने और भगवान के अवतरित होने का यही फल हुआ ? क्या गीता ज्ञान देने के बाद अधर्म का युग प्रारम्भ हुआ ? सपष्ट है कि उनका विवेक इस प्रश्न का uttar "न" शब्द से ही देगा I
            भगवान के अवतरण होने के बाद कलियुग का प्रारंभ मानना तो भगवान की ग्लानी करना है क्योंकि भगवान का यथार्थ परिचय तो यह है कि वे अवतरित होकर पृथ्वी को असुरो से खाली करते है I और यहाँ धर्म को पूर्ण कलाओं सहित स्थापित करके तथा नर को श्रीनारायण मनुष्य की सदगति करते है I  भगवान तो सृष्टि के " बीज रूप " है तथा स्वरुप है, अत: इसी धरती पर उनके आने के पश्चात् तो नए सृष्टि-वृक्ष, अर्थात नई सतयुगी सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है I इसके अतिरिक्त, यदि द्वापर के अंत में गीता ज्ञान दिया गया होता तो कलियुग के तमोप्रधान काल में तो उसकी प्रारब्ध ही न भोगी जा सकती I आज भी आप सीखते है कि दिवाली के दिनों में श्री लक्ष्मी का आह्वान करने के लिए भारतवासी अपने घरो को साफसुथरा करते है तथा दीपक आदि जलाते है इससे स्पष्ट है कि अपवित्रता और अंधकार वाले स्थान पर तो देवता अपने चरण भी नहीं धरते I अत: श्रीकृष्ण का अर्थात लक्ष्मीपति श्रीनारायण का जन्म द्वापर में मानना महान भूल है I उनका जन्म तो सतयुग में हुआ जबकि सभी मित्र -सम्बन्धी तथा प्रकृति-पदार्थ सतोप्रधन एवं दिव्य थे और सभी का आत्मा-रूपी दीपक जगा हुआ था तथा सृष्टि में कोई भी म्लेच्छ तथा क्लेश न था I
        अत: उपर्युक्त  से स्पष्ट है कि न तो श्रीकृष ही द्वापरयुग में हुए और न ही गीता-ज्ञान द्वापर युग के अंत में दिया गया बल्कि निराकार, पतितपावन परमात्मा शिव ने कलियुग के अंत और सतयुग के आदि के संगम समय, दर्म-ग्लानी के समय, बह्मा तन में दिव्य जन्म लिया और गीता -ज्ञान देकर सतयुग कि तथा श्रीकृष्ण ( श्रीनारायण) के स्वराज्य कि स्थापना कि श्रीकृष्ण के तो अपने माता-पिता, शिक्षक थे परन्तु गीता-ज्ञान सर्व आत्माओं के माता-पिता शिव ने   दिया I

Sunday, 13 November 2011

(5000) स्कूल में नीतिक मूल्य बारे में स्कूलों और जेलों (800) समाज सेवा

बायो --डाटा (परिचय ) ब्रह्मा कुमार भगवान भाई आबू पर्वत बायो --डाटा (परिचय ) ब्रह्मा कुमार भगवान भाई आबू पर्वत ब्रह्माकुमारी नाम: राजयोगी ब्रह्मा कुमार भगवान भाई ब्रह्माकुमारी शांतिवन में राजयोगा टीचर मुख्यालय प्रजापिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विद्यालय विश्व आबू पर्वत राजस्तान में रसोई विभाग में ब्रह्मा भोजन में सेवा लेखक, विभिन्न मगैनेस और समाचार पत्रों में शैक्षिक योग्यता: 10 वीं और आय .टी .आय . जन्म तिथि: जून 1, 1965 सेवा स्थान: अबू रोड, शांतिवन ज्ञान में : 1985 सेवा में समर्पित कब से 1987: सेवा --- जैसे, ग्राम विकाश कई आध्यात्मिक अभियानों में , रैली, शिव सन्देश रथ यात्रा, मूल्य आधारित मीडिया अभियान, मूल्य आधारित शिक्षा अभियान, युवा पद यात्रा, आदि भारत के विभिन्न प्रदेशों में, साथ ही में नेपाल में भी भाषण विभिन्न विषयों पर पर संबोधित किया है कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय (5000) स्कूल में नीतिक मूल्य बारे में स्कूलों और जेलों (800) समाज सेवा पुनर्वास शिविर बाढ़ जैसे प्राकृतिक आपदाओं, भूकम्प आदि कोर्स और प्रशिक्षण कार्यक्रम में विभिन्न क्लास लिया है यह ईश्वरीय विश्वविद्यालय के एक बहुत अच्छे लेखक हैं. अपने लेख बहुत बार कई पत्रिकाओं में प्रकाशित कर रहे हैं जैसे (हिंदी) ज्ञानामृत , विश्व नवीनीकरण (अंग्रेज़ी) के रूप में,

निकट भविष्य में श्रीकृष्ण आ रहे है प्रतिदिन समाचार -पत्रों में अकाल, बाड़, भ्रष्टाचार व् लड़ाई- झगडे का समाचार पदने को मिलता है I प्रकृति के पांच तत्व भी मनुष्य को दुःख दे रहे है और सारा ही वातावरण दूषित हो गया है I अत्याचार, विषय-विकार तथा अधर्म का ही बोलबाला है I और यह विश्व ही "काँटों का जंगल" बन गया है I एक समय था जबकि विश्व में सम्पूर्ण सुख शांति का साम्राज्य था और यह सृष्टि फूलो का बगीचा कहलाती थी I प्रकृति भी सतोप्रधान थी I और किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदाए नही थी I मनुष्य भी सतोप्रधान , देविगुण संपन्न थे I और आनंद ख़ुशी से जीवन व्यतीत करते थे I उस समय यह संसार स्वर्ग था, जिसे सतयुग भी कहते है इस विश्व में समृद्धि,, सुख, शांति का मुख्य कारण था कि उस समय के राजा तथा प्रजा सभी पवित्र और श्रेष्ठाचारी थे इसलिए उनको सोने के रत्न-जडित ताज के अतिरिक्त पवित्रता का ताज भी दिखाया गया है I श्रीकृष्ण तथा श्री राधा सतयुग के प्रथम महाराजकुमार और महाराजकुमारी थे जिनका स्वयंवर के पश्चात् " श्री नारायण और श्री लक्ष्मी" नाम पड़ता है I उनके राज्य में " शेर और गाय" भी एक घाट पर पानी पीते थे, अर्थात पशु पक्षी तक सम्पूर्ण अहिंसक थे I उस समय सभी श्रेष्ठाचारी, निर्विकारी अहिंसक और मर्यादा पुरुषोत्तम थे, तभी उनको देवता कहते है जबकि उसकी तुलना में आज का मनुष्य विकारी, दुखी और अशांत बन गया है I यह संसार भी रौरव नरक बन गया है I सभी नर-नारी काम क्रोधादि विषय-विकारो में गोता लगा रहे है I सभी के कंधे पर माया का जुआ है तथा एक भी मनुष्य विकारो और दुखो से मुक्त नहीं है I अत: अब परमपिता परमात्मा, परम शिक्षक, परम सतगुरु परमात्मा शिव कहते है, " हे वत्सो ! तुम सभी जन्म-जन्मान्तर से मुझे पुकारते आये हो कि - हे पभो , हमें दुःख और अशांति से छुडाओ और हमें मुक्तिधाम तथा स्वर्ग में ले चलो I अत: अब में तुम्हे वापस मुक्तिधाम में ले चलने के लिए तथा इस सृष्टि को पावन अथवा स्वर्ग बनाने आया हु I वत्सो, वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है अब आप वैकुण्ठ ( सतयुगी पावन सृष्टि) में चलने की तैयारी करो अर्थात पवित्र और योग-युक्त बनो क्योंकि अब निकट भविष्य में श्रीकृष्ण ( श्रीनारायण) का राज्य आने ही वाला है तथा इससे इस कलियुगी विकारी सृष्टि का महाविनाश एटम बमों, प्राकृतिक आपदाओ तथा गृह युद्ध से हो जायेगा I चित्र में श्रीकृष्ण को " विश्व के ग्लोब" के ऊपर मधुर बंशी बजाते हुए दिखाया है जिसका अर्थ यह है कि समस्त विश्व में " श्रीकृष्ण" ( श्रीनारायण) का एक छात्र राज्य होगा, एक धर्म होगा, एक भाषा और एक मत होगी तथा सम्पूर्ण खुशहाली, समृद्धि और सुख चैन की बंशी बजेगी I बहुत-से लोगो की यह मान्यता है कि श्रीकृष्ण द्वापर युग के अंत में आते है I उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि श्रीकृष्ण तो सर्वगुण संपन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी एवं पूर्णत: पवित्र थे I तब भला उनका जन्म द्वापर युग की रजो प्रधान एवं विकारयुक्त सृष्टि में कैसे हो सकता है ? श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए सूरदास ने अपनी अपवित्र दृष्टी को समाप्त करने की कोशिश की और श्रीकृष्ण- भक्तिन मीराबाई ने पवित्र रहने के लिए जहर का प्याला पीना स्वीकार किया, तब भला श्रीकृष्ण देवता अपवित्र दृष्टी वाली सृष्टि में कैसे आ सकते है ? श्रीकृष्ण तो स्वयंबर के बाद श्रीनारायण कहलाये तभी तो श्रीकृष्ण के बुजुर्गी के चित्र नही मिलते I अत: श्रीकृष्ण अर्थात सतयुगी पावन सृष्टि के प्रारम्भ में आये थे और अब पुन: आने वाले है I

  निकट भविष्य में  श्रीकृष्ण  आ  रहे  है 
प्रतिदिन  समाचार -पत्रों में अकाल, बाड़, भ्रष्टाचार  व् लड़ाई- झगडे का समाचार पदने को मिलता है I प्रकृति के पांच तत्व भी मनुष्य को दुःख दे रहे है और सारा ही वातावरण दूषित हो गया है I अत्याचार, विषय-विकार तथा अधर्म का ही बोलबाला है I और यह विश्व ही "काँटों का जंगल" बन गया है I एक समय था जबकि विश्व में सम्पूर्ण सुख शांति का साम्राज्य था और यह सृष्टि फूलो का बगीचा कहलाती थी I प्रकृति भी सतोप्रधान  थी I और किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदाए नही थी I मनुष्य भी सतोप्रधान , देविगुण संपन्न थे I और आनंद ख़ुशी से जीवन व्यतीत करते थे I उस समय यह संसार स्वर्ग था, जिसे सतयुग भी कहते है इस विश्व में समृद्धि,, सुख, शांति का मुख्य कारण था कि उस समय के राजा तथा प्रजा सभी पवित्र और श्रेष्ठाचारी थे इसलिए उनको सोने के रत्न-जडित ताज के अतिरिक्त पवित्रता का ताज भी दिखाया गया है I श्रीकृष्ण तथा श्री राधा   सतयुग के प्रथम महाराजकुमार  और महाराजकुमारी थे जिनका स्वयंवर के पश्चात् " श्री नारायण और श्री लक्ष्मी" नाम पड़ता है I उनके राज्य में " शेर और गाय" भी एक घाट पर पानी पीते थे, अर्थात पशु पक्षी तक सम्पूर्ण अहिंसक थे I उस समय सभी श्रेष्ठाचारी, निर्विकारी अहिंसक और मर्यादा पुरुषोत्तम थे, तभी उनको देवता कहते है जबकि उसकी तुलना में आज का मनुष्य विकारी, दुखी और अशांत बन गया है I यह संसार भी रौरव नरक बन गया है I सभी नर-नारी काम क्रोधादि विषय-विकारो में गोता लगा रहे है I सभी के कंधे पर माया का जुआ है तथा एक भी मनुष्य विकारो और दुखो से मुक्त नहीं है I

            अत: अब परमपिता परमात्मा, परम शिक्षक, परम सतगुरु परमात्मा शिव कहते है, " हे वत्सो ! तुम सभी जन्म-जन्मान्तर से मुझे पुकारते आये हो कि - हे पभो , हमें दुःख और अशांति से छुडाओ और हमें मुक्तिधाम तथा स्वर्ग में ले चलो I अत: अब में तुम्हे वापस मुक्तिधाम में ले चलने के लिए तथा इस सृष्टि को पावन अथवा स्वर्ग बनाने आया हु I वत्सो, वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है अब आप वैकुण्ठ ( सतयुगी पावन सृष्टि) में चलने की तैयारी करो अर्थात पवित्र और योग-युक्त बनो क्योंकि अब निकट भविष्य में श्रीकृष्ण ( श्रीनारायण) का राज्य आने ही वाला है तथा इससे इस कलियुगी विकारी सृष्टि का महाविनाश एटम  बमों, प्राकृतिक आपदाओ तथा गृह युद्ध से हो जायेगा I चित्र में श्रीकृष्ण को " विश्व के ग्लोब" के ऊपर मधुर बंशी बजाते  हुए दिखाया है जिसका अर्थ यह है कि समस्त विश्व में            " श्रीकृष्ण" ( श्रीनारायण) का एक छात्र राज्य होगा, एक धर्म होगा, एक भाषा और एक मत होगी तथा सम्पूर्ण खुशहाली, समृद्धि और सुख चैन की बंशी बजेगी I

        बहुत-से लोगो की यह मान्यता है कि श्रीकृष्ण द्वापर युग के अंत में आते है I उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि श्रीकृष्ण तो सर्वगुण संपन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी  एवं पूर्णत: पवित्र थे I तब भला उनका जन्म द्वापर युग की रजो प्रधान एवं विकारयुक्त सृष्टि में कैसे हो सकता है ? श्रीकृष्ण  के दर्शन के लिए सूरदास ने अपनी अपवित्र दृष्टी को समाप्त करने की कोशिश की और श्रीकृष्ण- भक्तिन मीराबाई ने पवित्र रहने के लिए जहर का प्याला पीना स्वीकार किया, तब भला श्रीकृष्ण देवता अपवित्र दृष्टी वाली सृष्टि में कैसे आ सकते है ? श्रीकृष्ण तो स्वयंबर के बाद श्रीनारायण कहलाये तभी तो श्रीकृष्ण के बुजुर्गी के चित्र नही मिलते I अत: श्रीकृष्ण अर्थात सतयुगी पावन सृष्टि के प्रारम्भ में आये थे और अब पुन: आने वाले है I

आत्मा क्या है और मन क्या है ? अपने सारे दिन की बातचीत में मनुष्य प्रतिदिन न जाने कितनी बार मै शब्द का प्रयोग करता है I परन्तु यह एक आश्चर्य की बात है कि प्रतिदिन मै और मेरा शब्द का अनेकानेक बार प्रयोग करने पर भी मनुष्य यथार्थ रूप में यह नहीं जानता कि मैं कहने वाली सत्ता का स्वरूप क्या है अर्थात में शब्द जिस वस्तु का सूचक है वह क्या है ? आज मनुष्य ने साइंस द्वारा बड़ी-बड़ी शक्तिशाली चीजे तो बना डाली है,उसने संसार की अनेक पहेलियो का उत्तर भी जन लिया है और वह अन्य अनेक जटिल समस्याओ का हल निकलने में लगा है परन्तु में कहलाने वाला कौन है, इसके बारे में वह सत्यता को नहीं जानता अर्थात वह स्वयं को नहीं पहचानता I आज किसी मनुष्य से पूछा जाय की " आप कौन है ?" अथवा "आपका क्या परिचय है ?" तो वह झट अपने शरीर का नाम बता देगा अथवा जो वह धंधा करता है वह उसका नाम बता देगा I वास्तव में " में " शब्द शरीर से भिन्न चेतन सत्ता "आत्मा " का सूचक है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है I मनुष्य (जीवात्मा) आत्मा और शरीर को मिलकर बनता है I जैसे शरीर पञ्च तत्वों ( जल, वायु ,अग्नि , आकाश और पृथ्वी ) से बना हुआ होता है वैसे ही आत्मा मन बुद्दि और संस्कारमय होती है I आत्मा में ही विचार करने और निर्णय करने की शक्ति होती है I तथा वह जैसा कर्म करती है उसी के अनुसार उसके संस्कार बनते है I आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिंदु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है इजैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिंदु-सा दिखाई देता है , वैसे ही दिव्य-दृष्टी द्वारा आत्मा भी एक तारे क़ी तरह दिखाई देती है इसीलिए एक प्रसिद्द पद में कहा गया है -"भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा , गरीबा नूं साहिबा लगदा ए प्यारा I आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यहीं हाथ लगाता आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिंदु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है इजैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिंदु-सा दिखाई देता है , वैसे ही दिव्य-दृष्टी द्वारा आत्मा भी एक तारे क़ी तरह दिखाई देती है इसीलिए एक प्रसिद्द पद में कहा गया है -"भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा , गरीबा नूं साहिबा लगदा ए प्यारा I आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यहीं हाथ लगता आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिंदु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है इजैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिंदु-सा दिखाई देता है , वैसे ही दिव्य-दृष्टी द्वारा आत्मा भी एक तारे क़ी तरह दिखाई देती है इसीलिए एक प्रसिद्द पद में कहा गया है -"भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा , गरीबा नूं साहिबा लगदा ए प्यारा I आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यहीं हाथ लगाता है I जब वह यह कहता है कि मेरे तो भाग्य खोटे है , तब भी वह यहीं हाथ लगता है I आत्मा का यहाँ वास होने के कारण ही भक्त-लोगो में यहा ही बिंदी अथवा तिलक लगाने क़ी प्रथा है I यहाँ आत्मा का सम्बन्ध मस्तिस्क से जुड़ा है और मस्तिष्क का सम्बन्ध शरीर में फैले ज्ञान-तंतुओ से है I आत्मा ही में पहले संकल्प उठता है और फिर मस्तिस्क तथा तंतुओ द्वारा व्यक्त होता है I आत्मा ही शांति अथवा दुःख का अनुभव करती तथा निर्णय करती है और उसी में संस्कार रहते है I अत: मन और बुद्दि आत्मा से अलग नहीं है I परन्तु आज आत्मा स्वयं को भूलकर देह -स्त्री , पुरुष ,बुड़ा , जवान इत्यादी मान बैठी है I यह देह-अभिमान ही दुःख का कारण है इ उपरोक्त रहस्य को मोटर के ड्राईवर के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया गया है इ शरीर मोटर के समान है तथ आतम इसका ड्राईवर है , अर्थात जैसे ड्राईवर मोटर का नियंत्रण करता है , उसी प्रकार आत्मा शरीर का नियत्रण करती है I आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण है , जैसे ड्राईवर के बिना मोटर I अत: परमपिता परमात्मा कहते है कि अपने आपको पहचानने से ही मनुष्य इस शरीर रूपी मोटर को चला सकता है और अपने लक्ष्य ( गंतव्य स्थान ) पर पहुँच सकता है अन्यथा जैसे कि ड्राईवर कर चलाने में निपुण न होने के कारण दुर्घटना (एक्सिडेंट) का शिकार बन जाता है और कार और उसके यात्रियों को भी चोट लगती है, इसी प्रकार जिस मनुष्य को अपनी पहचान नही है वह स्वयं तो दु:खी और अशांत होता ही है, साथ ही अपने संपर्क में आने वाले मित्र संबंधियों को भी दु:खी व् अशांत बना देता है I अत: सच्चे सुख व् सच्ची शांति के लिए स्वयं को जानना अति आवश्यक है I

आत्मा क्या है और मन क्या है ?
अपने सारे दिन की बातचीत में मनुष्य प्रतिदिन न जाने कितनी बार मै शब्द का प्रयोग करता है I परन्तु यह एक आश्चर्य की बात है कि प्रतिदिन मै और मेरा शब्द का अनेकानेक बार प्रयोग करने पर भी मनुष्य यथार्थ रूप में यह नहीं जानता कि मैं कहने वाली सत्ता का स्वरूप क्या है अर्थात में शब्द जिस वस्तु का सूचक है वह क्या है ? आज मनुष्य ने साइंस द्वारा बड़ी-बड़ी शक्तिशाली चीजे तो बना डाली है,उसने संसार की अनेक पहेलियो का उत्तर भी जन लिया है और वह अन्य अनेक जटिल समस्याओ का हल निकलने में लगा है परन्तु में कहलाने वाला कौन है, इसके बारे में वह सत्यता को नहीं जानता अर्थात वह स्वयं को नहीं पहचानता I  आज किसी मनुष्य से पूछा जाय की " आप कौन है ?" अथवा "आपका क्या परिचय है ?" तो वह झट अपने शरीर का नाम बता देगा अथवा जो वह धंधा करता है वह उसका नाम बता देगा I
वास्तव में  " में " शब्द शरीर से भिन्न चेतन सत्ता "आत्मा " का सूचक है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है I  मनुष्य (जीवात्मा) आत्मा और शरीर को मिलकर बनता है I जैसे शरीर पञ्च तत्वों ( जल, वायु ,अग्नि , आकाश और पृथ्वी ) से बना हुआ होता है वैसे ही आत्मा मन बुद्दि और संस्कारमय होती है I आत्मा में ही विचार करने और निर्णय करने की शक्ति होती है I तथा वह जैसा कर्म करती है उसी के अनुसार उसके संस्कार बनते है I
                  आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिंदु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है इजैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिंदु-सा दिखाई देता है , वैसे ही दिव्य-दृष्टी द्वारा आत्मा भी एक तारे क़ी तरह दिखाई देती है इसीलिए  एक प्रसिद्द पद में कहा गया है -"भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा , गरीबा नूं साहिबा  लगदा ए प्यारा I आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यहीं हाथ लगाता आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिंदु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है इजैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिंदु-सा दिखाई देता है , वैसे ही दिव्य-दृष्टी द्वारा आत्मा भी एक तारे क़ी तरह दिखाई देती है इसीलिए  एक प्रसिद्द पद में कहा गया है -"भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा , गरीबा नूं साहिबा  लगदा ए प्यारा I आत्मा का वास भृकुटी में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यहीं हाथ लगता आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति-बिंदु है जो कि मानव देह में भृकुटी में निवास करती है इजैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिंदु-सा दिखाई देता है , वैसे ही दिव्य-दृष्टी द्वारा आत्मा भी एक तारे क़ी तरह दिखाई देती है इसीलिए  एक प्रसिद्द पद में कहा गया है -"भृकुटी में चमकता है एक अजब तारा , गरीबा नूं साहिबा  लगदा ए प्यारा I आत्मा का वास भृकुटी  में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यहीं हाथ लगाता है I जब वह यह कहता है कि मेरे तो भाग्य खोटे है , तब भी वह यहीं हाथ लगता है I आत्मा का यहाँ वास होने के कारण ही भक्त-लोगो में यहा ही बिंदी अथवा तिलक लगाने क़ी प्रथा है  I यहाँ आत्मा का सम्बन्ध मस्तिस्क से जुड़ा है और मस्तिष्क का सम्बन्ध शरीर में फैले ज्ञान-तंतुओ से है I आत्मा ही में पहले संकल्प उठता है और फिर मस्तिस्क तथा तंतुओ द्वारा व्यक्त होता है I आत्मा   ही शांति अथवा दुःख का अनुभव करती तथा निर्णय करती है और उसी में संस्कार रहते है I अत: मन और बुद्दि आत्मा से अलग नहीं है I परन्तु  आज आत्मा स्वयं को भूलकर देह -स्त्री , पुरुष ,बुड़ा , जवान इत्यादी मान बैठी है I यह देह-अभिमान ही दुःख का कारण है इ
            उपरोक्त रहस्य को मोटर के ड्राईवर के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया गया है इ शरीर मोटर के समान है तथ आतम इसका ड्राईवर है , अर्थात जैसे ड्राईवर मोटर का नियंत्रण करता है , उसी प्रकार आत्मा शरीर का नियत्रण करती है I आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण है , जैसे ड्राईवर के बिना मोटर I अत: परमपिता  परमात्मा कहते है कि अपने आपको पहचानने से ही मनुष्य इस शरीर रूपी मोटर को चला सकता है और अपने लक्ष्य ( गंतव्य स्थान ) पर पहुँच सकता है अन्यथा जैसे कि ड्राईवर कर चलाने में निपुण न होने के कारण दुर्घटना (एक्सिडेंट) का शिकार बन जाता है और कार और उसके यात्रियों को भी चोट लगती है, इसी प्रकार जिस मनुष्य को अपनी पहचान नही है वह स्वयं तो दु:खी और अशांत होता ही है, साथ ही अपने संपर्क में आने वाले मित्र संबंधियों को भी दु:खी व् अशांत बना देता है I अत: सच्चे सुख व् सच्ची शांति के लिए स्वयं को जानना अति आवश्यक है I 

मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? मनुष्य का वर्तमान जीवन बड़ा अनमोल है क्योंकि अब संगमयुग में ही वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करके जन्म-जन्मान्तर के लिए सर्वोत्तम प्रारब्ध बना सकता है और अतुल हीरो-तुल्य कमाई कर सकता है I वह इसी जन्म में सृष्टि का मालिक अथवा जगतजीत बनने का पुरुषार्थ कर सकता है I परन्तु आज मनुष्य को जीवन का लक्ष्य मालूम न होने के कारण वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करने की बजाय इसे विषय-विकारो में गँवा रहा है I अथवा अल्पकाल की प्राप्ति में लगा रहा है I आज वह लौकिक शिक्षा द्वारा वकील, डाक्टर, इंजिनीयर बनने का पुरुषार्थ कर रहा है और कोई तो राजनीति में भाग लेकर देश का नेता, मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बनने के प्रयत्न में लगा हुआ है अन्य कोई इन सभी का सन्यास करके, "सन्यासी" बनकर रहना चाहता है I परन्तु सभी जानते है की म्रत्यु-लोक में तो राजा-रानी, नेता वकील, इंजीनियर, डाक्टर, सन्यासी इत्यादि कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है I सभी को तन का रोग, मन की अशांति, धन की कमी, जानता की चिंता या प्रकृति के द्वारा कोई पीड़ा, कुछ न कुछ तो दुःख लगा ही हुआ है I अत: इनकी प्राप्ति से मनुष्य जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि मनुष्य तो सम्पूर्ण - पवित्रता, सदा सुख और स्थाई शांति चाहता है I चित्र में अंकित किया गया है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य जीवन-मुक्ति की प्राप्ति अठेया वैकुण्ठ में सम्पूर्ण सुख-शांति-संपन्न श्री नारायण या श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति ही है I क्योंकि वैकुण्ठ के देवता तो अमर मने गए है, उनकी अकाल म्रत्यु नही होती; उनकी काया सदा निरोगी रहती है I और उनके खजाने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती इसीलिए तो मनुष्य स्वर्ग अथवा वैकुण्ठ को याद करते है और जब उनका कोई प्रिय सम्बन्धी शरीर छोड़ता है तो वह कहते है कि -" वह स्वर्ग सिधार गया है " I इस पद की प्राप्ति स्वयं परमात्मा ही ईश्वरीय विद्या द्वारा कराते है इस लक्ष्य की प्राप्ति कोई मनुष्य अर्थात कोई साधू-सन्यासी, गुरु या जगतगुरु नहीं करा सकता बल्कि यह दो ताजो वाला देव-पद अथवा राजा-रानी पद तो ज्ञान के सागर परमपिता परमात्मा शिव ही से प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग के अभ्यास से प्राप्त होता है I अत: जबकि परमपिता परमात्मा शिव ने इस सर्वोत्तम ईश्वरीय विद्या की शिक्षा देने के लिए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय की स्थापना की है I तो सभी नर-नारियो को चाहिए की अपने घर-गृहस्थ में रहते हुए, अपना कार्य धंधा करते हुए, प्रतिदिन एक-दो- घंटे निकलकर अपने भावी जन्म-जन्मान्तर के कल्याण के लिए इस सर्वोत्तम तथा सहज शिक्षा को प्राप्त करे I इस विद्या की प्राप्ति के लिए कुछ भी खर्च करने की आवश्यकता नही है, इसीलिए इसे तो निर्धन व्यक्ति भी प्राप्त कर अपना सौभाग्य बना सकते है I इस विद्या को तो कन्याओ, मतों, वृद्ध-पुरुषो, छोटे बच्चो और अन्य सभी को प्राप्त करने का अधिकार है क्योंकि आत्मा की दृष्टी से तो सभी परमपिता परमात्मा की संतान है I अभी नहीं तो कभी नहीं वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है I इसलिय अब यह पुरुषार्थ न किया तो फिर यह कभी न हो सकेगा क्योंकि स्वयं ज्ञान सागर परमात्मा द्वारा दिया हुआ यह मूल गीता - ज्ञान कल्प में एक ही बार इस कल्याणकारी संगम युग में ही प्राप्त हो सकता है I

मनुष्य जीवन का लक्ष्य  क्या है  ?
                   मनुष्य का वर्तमान जीवन बड़ा अनमोल है क्योंकि अब संगमयुग में ही वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करके जन्म-जन्मान्तर के लिए सर्वोत्तम प्रारब्ध बना सकता है और अतुल हीरो-तुल्य कमाई कर सकता है I 

         वह इसी जन्म में सृष्टि का मालिक अथवा जगतजीत बनने का पुरुषार्थ कर सकता है I परन्तु आज मनुष्य को जीवन का लक्ष्य मालूम न होने के कारण वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करने की बजाय इसे विषय-विकारो में गँवा रहा है I अथवा अल्पकाल की प्राप्ति में लगा रहा है I आज वह लौकिक शिक्षा द्वारा वकील, डाक्टर, इंजिनीयर बनने का पुरुषार्थ कर रहा है और कोई तो राजनीति में भाग लेकर देश का नेता, मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बनने के प्रयत्न में लगा हुआ है अन्य कोई इन सभी का सन्यास करके, "सन्यासी" बनकर रहना चाहता है I परन्तु सभी जानते है की म्रत्यु-लोक  में तो राजा-रानी, नेता वकील, इंजीनियर, डाक्टर, सन्यासी इत्यादि कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है I सभी को तन का रोग, मन की अशांति, धन की कमी, जानता की चिंता या प्रकृति के द्वारा कोई पीड़ा, कुछ न कुछ तो दुःख लगा ही हुआ है I अत: इनकी प्राप्ति से मनुष्य जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि मनुष्य तो सम्पूर्ण - पवित्रता, सदा सुख और स्थाई शांति चाहता है I

           चित्र में अंकित किया गया है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य जीवन-मुक्ति की प्राप्ति अठेया वैकुण्ठ में सम्पूर्ण सुख-शांति-संपन्न श्री नारायण या श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति ही है I क्योंकि वैकुण्ठ के देवता तो अमर मने गए है, उनकी अकाल म्रत्यु नही होती; उनकी काया सदा निरोगी रहती है I और उनके खजाने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती इसीलिए तो मनुष्य स्वर्ग अथवा वैकुण्ठ को याद करते है और जब उनका कोई प्रिय सम्बन्धी शरीर छोड़ता है तो वह कहते है कि -" वह स्वर्ग सिधार गया है " I

                              इस पद की प्राप्ति स्वयं परमात्मा ही ईश्वरीय विद्या द्वारा कराते है 
        इस लक्ष्य की प्राप्ति कोई मनुष्य अर्थात कोई साधू-सन्यासी, गुरु या जगतगुरु नहीं करा सकता बल्कि यह दो ताजो वाला देव-पद अथवा राजा-रानी पद तो ज्ञान के सागर परमपिता परमात्मा शिव ही से प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग के अभ्यास से प्राप्त होता है I
         अत: जबकि परमपिता परमात्मा शिव ने इस सर्वोत्तम ईश्वरीय विद्या की शिक्षा देने के लिए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय की स्थापना की है I तो सभी नर-नारियो को चाहिए की अपने घर-गृहस्थ में रहते हुए, अपना कार्य धंधा करते हुए, प्रतिदिन एक-दो- घंटे निकलकर अपने भावी जन्म-जन्मान्तर के कल्याण के लिए इस सर्वोत्तम तथा सहज शिक्षा को प्राप्त करे I
      इस विद्या की प्राप्ति के लिए कुछ भी खर्च करने की आवश्यकता नही है, इसीलिए इसे तो निर्धन व्यक्ति भी प्राप्त कर अपना सौभाग्य  बना सकते है I इस विद्या को तो कन्याओ, मतों, वृद्ध-पुरुषो, छोटे बच्चो और अन्य सभी को प्राप्त करने का अधिकार है क्योंकि आत्मा की दृष्टी से तो सभी परमपिता परमात्मा की संतान है I

                                                        अभी नहीं तो कभी नहीं  
       वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है I इसलिय अब यह पुरुषार्थ न किया तो फिर यह कभी न हो सकेगा क्योंकि स्वयं ज्ञान सागर परमात्मा द्वारा दिया हुआ यह मूल गीता - ज्ञान कल्प में एक ही बार इस कल्याणकारी संगम युग में ही प्राप्त हो सकता है I

सृष्टि नाटक का रचयिता और निर्देशक कौन है यह मनुष्य सृष्टि पृकृति-पुरुष का एक अनादी खेल है इसकी कहानी को जानकर मनुष्यात्मा बहुत ही आन्नद प्राप्त कर सकती है I सृष्टि रूपी नाटक के चार पट सामने दिए गए चित्र में दिखाया गया है कि स्वस्तिक सृष्टि- चक्र को चार बराबर भागो में बांटता है -- सतयुग,त्रेतायुग , द्वापर और कलियुग I सृष्टि नाटक में हर एक आत्मा का एक निश्चित समय पर परमधाम से इस सृष्टि रूपी नाटक के मंच पर आती है I सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य सामने आते है I और इन दो युगों की सम्पूर्ण सुखपूर्ण सृष्टि में पृथ्वी-मंच पर एक "अदि सनातन देवी देवता धर्म वंश" की ही मनुष्यात्माओ का पार्ट होता है I और अन्य सभी धर्म-वंशो की आत्माए परमधाम में होती है I अत: इन दो युगों में केवल इन्ही दो वंशो की ही मनुष्यात्माये अपनी-अपनी पवित्रता की स्तागे के अनुसार नम्बरवार आती है इसलिए, इन दो युगों में सभी अद्वेत पुर निर्वैर स्वभाव वाले होते है I द्वापरयुग में इसी धर्म की रजोगुणी अवस्था हो जाने से इब्राहीम द्वारा इस्लाम धर्म-वंश की, बुद्ध द्वारा बौद्ध-धर्म वंश की और ईसा द्वारा ईसाई धर्म की स्थापना होती है I अत: इन चार मुख्य धर्म वंशो के पिता ही संसार के मुख्य एक्टर्स है और इन चार धर्म के शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है इसके अतिरिक्त, सन्यास धर्म के स्थापक नानक भी इस विश्व नाटक के मुख्य एक्टरो में से है I परन्तु फिर भी मुख्य रूप में पहले बताये गए चार धर्मो पर ही सारा विश्व नाटक आधारित है इस अनेक मत-मतान्तरो के कारण द्वापर युग तथा कलियुग की सृष्टि में द्वेत, लड़ाई झगडा तथा दुःख होता है I कलियुग के अंत में, जब धर्म की आती ग्लानी हो जाती है, अर्थात विश्व का सबसे पहला " अदि सनातन देवी देवता धर्म" बहुत क्षीण हो जाता है और मनुष्य अत्यंत पतित हो जाते है, तब इस सृष्टि के रचयिता तथा निर्देशक परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में स्वयं अवतरित होते है I वे प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मुख-वंशी कन्या --" ब्रह्माकुमारी सरस्वती " तथा अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मानियो को रचते है और उन द्वारा पुन: सभी को अलौकिक माता-पिता के रूप में मिलते है तथा ज्ञान द्वारा उनकी मार्ग-प्रदर्शना करते है और उन्हें मुक्ति तथा जीवनमुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार देते है I अत: प्रजपिता बह्मा तथा जगदम्बा सरस्वती, जिन्हें ही "एडम" अथवा "इव" अथवा "आदम और हव्वा" भी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका है I क्योंकि इन्ही द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते है कलियुग के अंत और सतयुग के आरंभ का यह छोटा सा संगम, अर्थात संगमयुग, जब परमात्मा अवतरित होते है, बहुत ही महत्वपूर्ण है I विश्व के इतिहास और भूगोल की पुनरावृत्ति चित्र में यह भी दिखाया गया है कि कलियुग के अंत में परमपिता परमात्मा शिव जब महादेव शंकर के द्वारा सृष्टि का महाविनाश करते है तब लगभग सभी आत्मा रूपी एक्टर अपने प्यारे देश, अर्थात मुक्तिधाम को वापस लौट जाते है और फिर सतयुग के आरंभ से "अदि सनातन देवी देवता धर्म" कि मुख्य मनुष्यात्माये इस सृष्टि-मंच पर आना शुरू कर देती है I फिर २५०० वर्ष के बाद, द्वापरयुग के प्रारंभ से इब्राहीम के इस्लाम घराने की आत्माए, फिर बौद्ध धर्म वंश की आत्माए, फिर ईसाई धर्म वंश की आत्माए अपने-अपने समय पर सृष्टि-मंच पर फिर आकर अपना-अपना अनादि-निश्चित पार्ट बजाते है I और अपनी स्वर्णिम, रजत, ताम्र और लोह, चारो अवस्थाओ को पर करती है इस प्रकार, यह अनादि निश्चित सृष्टि-नाटक अनादि काल से हर ५००० वर्ष के बाद हुबहू पुनरावृत्त होता ही रहता है I

सृष्टि नाटक का रचयिता और निर्देशक कौन है
      यह मनुष्य सृष्टि पृकृति-पुरुष का एक अनादी खेल है इसकी कहानी को जानकर मनुष्यात्मा बहुत ही आन्नद प्राप्त कर सकती है I
                                                            सृष्टि रूपी नाटक के चार पट
     सामने दिए गए चित्र में दिखाया गया है कि स्वस्तिक सृष्टि- चक्र को चार बराबर भागो में बांटता है -- सतयुग,त्रेतायुग , द्वापर और कलियुग I
   सृष्टि नाटक में हर एक आत्मा का एक निश्चित समय पर परमधाम से इस सृष्टि रूपी नाटक के मंच पर आती है I सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य सामने आते है I और इन दो युगों की सम्पूर्ण सुखपूर्ण सृष्टि में पृथ्वी-मंच पर एक "अदि सनातन देवी देवता धर्म वंश" की ही मनुष्यात्माओ का पार्ट होता है I और अन्य सभी धर्म-वंशो की आत्माए परमधाम में होती है I अत: इन दो युगों में केवल इन्ही दो वंशो की ही मनुष्यात्माये अपनी-अपनी पवित्रता की स्तागे के अनुसार नम्बरवार आती है इसलिए, इन दो युगों में सभी अद्वेत पुर निर्वैर स्वभाव वाले होते है I
     द्वापरयुग में इसी धर्म की रजोगुणी अवस्था हो जाने से इब्राहीम द्वारा इस्लाम धर्म-वंश की, बुद्ध द्वारा बौद्ध-धर्म वंश की और ईसा द्वारा ईसाई धर्म की स्थापना होती है I अत: इन चार मुख्य धर्म वंशो के पिता ही संसार के मुख्य एक्टर्स  है और इन चार धर्म के शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है इसके अतिरिक्त, सन्यास धर्म के स्थापक नानक भी इस विश्व नाटक के मुख्य एक्टरो में से है I परन्तु फिर भी मुख्य रूप में पहले बताये गए चार धर्मो पर ही सारा विश्व नाटक आधारित है इस अनेक मत-मतान्तरो के कारण द्वापर युग तथा कलियुग की सृष्टि में द्वेत, लड़ाई झगडा तथा दुःख होता है I
      कलियुग के अंत में, जब धर्म की आती ग्लानी हो जाती है, अर्थात विश्व का सबसे पहला " अदि सनातन देवी देवता धर्म" बहुत क्षीण हो जाता है और मनुष्य अत्यंत पतित हो जाते है, तब इस सृष्टि के रचयिता तथा निर्देशक परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में स्वयं अवतरित होते है I वे प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मुख-वंशी  कन्या --" ब्रह्माकुमारी सरस्वती " तथा अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मानियो को रचते है और उन द्वारा पुन: सभी को अलौकिक माता-पिता के रूप में मिलते है तथा ज्ञान द्वारा उनकी मार्ग-प्रदर्शना करते है और उन्हें मुक्ति तथा जीवनमुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार देते है I अत: प्रजपिता बह्मा तथा जगदम्बा सरस्वती, जिन्हें ही "एडम"  अथवा "इव" अथवा "आदम और हव्वा" भी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका है I क्योंकि इन्ही द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते है कलियुग के अंत और सतयुग के आरंभ का यह छोटा सा संगम, अर्थात संगमयुग, जब परमात्मा अवतरित होते है, बहुत ही महत्वपूर्ण है I
                                          विश्व के इतिहास और भूगोल की पुनरावृत्ति
  चित्र में यह भी दिखाया गया है कि कलियुग के अंत में परमपिता परमात्मा शिव जब महादेव शंकर के द्वारा सृष्टि का महाविनाश करते है तब लगभग सभी आत्मा रूपी एक्टर अपने प्यारे देश, अर्थात मुक्तिधाम को वापस लौट जाते है और फिर सतयुग के आरंभ से "अदि सनातन देवी देवता धर्म" कि मुख्य मनुष्यात्माये इस सृष्टि-मंच पर आना शुरू कर देती है I फिर २५०० वर्ष के बाद, द्वापरयुग के प्रारंभ से इब्राहीम के इस्लाम घराने की आत्माए, फिर बौद्ध धर्म वंश की  
       आत्माए, फिर ईसाई धर्म वंश की आत्माए अपने-अपने समय पर सृष्टि-मंच पर फिर आकर अपना-अपना         अनादि-निश्चित पार्ट बजाते है I और अपनी स्वर्णिम, रजत, ताम्र और लोह, चारो अवस्थाओ को पर करती है इस प्रकार, यह अनादि निश्चित सृष्टि-नाटक अनादि काल से हर ५००० वर्ष के बाद हुबहू पुनरावृत्त होता ही रहता है I

क्या रावण के दस सिर थे, रावण किसका प्रतीक है ? भारत के लोग प्रतिवर्ष रावण का बुत जलाते है I उनका काफी विश्वास है की एक दस सिर वाला रावण श्रीलंका का रजा था, वह एक बहुत बड़ा राक्षस था और उसने श्री सीता का अपहरण किया था I वे यह भी मानते है की रावण बहुत बड़ा विद्वान था इसलिए वे उसके हाथ में वेद, शास्त्र इत्यादि दिखाते है I साथ ही वे उसके शीश पर गधे का सिर भी दिखाते है I जिसका अर्थ वे यह लेते है की वह हठी ओर मतिहीन था लेकिन अब परमपिता परमात्मा शिव ने समझाया है की रावण कोई दस शीश वाला राक्षस ( मनुष्य) नही था बल्कि रावण का पुतला वास्तव में बुरे का प्रतीक है रावण के दस सिर पुरुष और स्त्री के पांच-पांच विकारो को प्रकट करते है I और उसकी तुलना एक ऐसे समाज का प्रतिरूप है जो इस प्रकार के विकारी स्त्री-पुरुष का बना हो इस समाज के लोग बहुत ग्रन्थ और शास्त्र पड़े हुए तथा विज्ञानं में उच्च शिक्षा प्राप्त भी हो सकते है लेकिन वे हिंसा और अन्य विकारो के वशीभूत होते है I इस तरह उनकी विद्वता उन पर बोझ मात्र होती है I वे उद्दंड बन गए होते है I और भलाई की बातो के लिए उनके कान बंद हो गए होते है I " रावण " शब्द का अर्थ ही है - जो दुसरो को रुलाने वाला है I अत: यह बुरे कर्मो का प्रतीक है, क्योंकि बुरे कर्म ही तो मनुष्य के जीवन में दुःख व् आंसू लाते है अतएव सीता के अपहरण का भाव वास्तव में आत्माओ की शुद्ध भावनाओ ही के अपहरण का सूचक है I इसी प्रकार कुम्भकरण आलस्य का तथा " मेघनाथ" कटु वचनों का प्रतीक है और यह सारा संसार ही एक महाद्वीप है अथवा मनुष्य का मन ही लंका है I इस विचार से हम कह सकते है की इस विश्व में द्वापरयुग और कलियुग में ( अर्थात २५०० वर्षो) " रावण राज्य" होता है क्योंकि इन दो युगों में लोग माया या विकारो के वशीभूत होते है उस समय अनेक पूजा पाठ करने तथा शास्त्र पढने के बाद भी मनुष्य विकारी, अधर्मी बन जाते है रोग ,शोक , अशांति और दुःख का सर्वत्र बोल बाला होता है I मनुष्यों का खानपान असुरो जैसा ( मांस, मदिरा, तामसी भोजन आदि) बन जाता है वे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारो के वशीभूत होकर एक दुसरे को दुःख देते और रुलाते रहते है I ठीक इसके विपरीत स्वर्ण युग और रजत युग में राम-राज्य था, क्योंकि परमपिता, जिन्हें की रमणीक अथवा सुखदाता होने के कारण " राम" भी कहते है, ने उस पवित्रता, शांति और सुख संपन्न देसी स्वराज्य की पुन: स्थापना की थी उस राम राज्य के बारे में प्रसिद्द है की तब शहद और दूध की नदिया बहती थी और शेर तथा गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे I अब वर्तमान में मनुष्यात्माये फिर से माया अर्थात रावण के प्रभाव में है औध्योगिक उन्नति, प्रचुर धन-धन्य और सांसारिक सुख - सभी साधन होते हुए भी मनुष्य को सच्चे सुख शांति की प्राप्ति नहीं है I घर-घर में कलह कलेश लड़ाई-झगडा और दुःख अशांति है तथा मिलावट, अधर्म और असत्यता का ही राज्य है तभी तो ऐसे " रावण राज्य" कहते है I अब परमात्मा शिव गीता में दिए अपने वचन के अनुसार सहज ज्ञान और राजयोग की शिक्षा दे रहे है और मनुष्यात्माओ के मनोविकारो को ख़त्म करके उनमे देवी गुण धारण करा रहे है ( वे पुन: विश्व में बापू-गाँधी के स्वप्नों के राम राज्य की स्थापना करा रहे है I ) अत: हम सबको सत्य धर्म और निर्विकारी मार्ग अपनाते हुए परमात्मा के इस महान कार्य में सहयोगी बनना चाहिए I

क्या रावण के दस सिर  थे, रावण किसका प्रतीक है  ?

भारत के लोग प्रतिवर्ष रावण का बुत जलाते है I उनका काफी विश्वास है की एक दस सिर वाला रावण श्रीलंका का रजा था, वह एक बहुत बड़ा राक्षस था और उसने श्री सीता का अपहरण  किया  था I वे  यह  भी  मानते  है की रावण बहुत बड़ा विद्वान  था इसलिए  वे  उसके  हाथ  में  वेद,  शास्त्र  इत्यादि   दिखाते  है I साथ  ही  वे  उसके  शीश  पर    गधे का सिर भी दिखाते है I जिसका अर्थ वे यह लेते है की वह हठी ओर मतिहीन था लेकिन अब परमपिता परमात्मा शिव ने समझाया है की रावण कोई दस शीश वाला राक्षस ( मनुष्य) नही था बल्कि रावण का पुतला वास्तव में बुरे का प्रतीक है रावण के दस सिर पुरुष और स्त्री के पांच-पांच विकारो को प्रकट करते है I और उसकी तुलना एक ऐसे समाज का प्रतिरूप है जो इस प्रकार के विकारी स्त्री-पुरुष का बना हो इस समाज के लोग बहुत ग्रन्थ और शास्त्र पड़े  हुए तथा विज्ञानं में उच्च शिक्षा प्राप्त भी हो सकते है लेकिन वे हिंसा और अन्य विकारो के वशीभूत होते है I इस तरह उनकी विद्वता उन पर बोझ मात्र होती है I वे उद्दंड  बन गए होते है I और भलाई की बातो के लिए उनके कान बंद हो गए होते है I " रावण " शब्द का अर्थ ही है - जो दुसरो को रुलाने वाला है I अत: यह बुरे कर्मो का प्रतीक है, क्योंकि बुरे कर्म ही तो मनुष्य के जीवन में दुःख व् आंसू लाते है  अतएव  सीता के अपहरण का भाव वास्तव में आत्माओ की शुद्ध भावनाओ ही के अपहरण का सूचक है I इसी प्रकार कुम्भकरण आलस्य का तथा " मेघनाथ" कटु वचनों का प्रतीक है और यह सारा संसार ही एक महाद्वीप है अथवा मनुष्य  का मन ही लंका है I 
           
                   इस विचार से हम कह सकते है की इस विश्व में द्वापरयुग और कलियुग में ( अर्थात २५०० वर्षो) " रावण राज्य" होता है क्योंकि इन दो युगों में लोग माया या विकारो के वशीभूत होते है उस समय अनेक पूजा पाठ करने  तथा शास्त्र पढने के बाद भी मनुष्य विकारी, अधर्मी   बन जाते  है रोग ,शोक ,  अशांति  और दुःख का सर्वत्र   बोल  बाला  होता है I मनुष्यों   का खानपान  असुरो जैसा ( मांस, मदिरा, तामसी भोजन  आदि) बन जाता है वे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारो के वशीभूत होकर एक दुसरे को दुःख देते और रुलाते रहते है I ठीक   इसके विपरीत स्वर्ण युग और रजत युग में राम-राज्य था, क्योंकि परमपिता, जिन्हें की रमणीक अथवा  सुखदाता होने के कारण " राम" भी कहते है, ने उस पवित्रता, शांति और सुख संपन्न देसी स्वराज्य की पुन: स्थापना की थी उस राम राज्य के बारे में प्रसिद्द है की तब शहद और दूध की नदिया बहती थी और शेर तथा गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे I

              अब वर्तमान  में मनुष्यात्माये फिर से माया अर्थात रावण के प्रभाव में है औध्योगिक उन्नति, प्रचुर धन-धन्य और सांसारिक सुख - सभी साधन होते हुए भी मनुष्य  को सच्चे सुख शांति की प्राप्ति नहीं है I घर-घर में कलह कलेश  लड़ाई-झगडा और दुःख अशांति है तथा मिलावट, अधर्म और असत्यता का ही राज्य है तभी तो ऐसे " रावण राज्य" कहते है I

          अब परमात्मा शिव गीता में दिए अपने वचन के अनुसार सहज ज्ञान और राजयोग की शिक्षा दे रहे है और मनुष्यात्माओ  के मनोविकारो को ख़त्म करके उनमे देवी गुण धारण करा रहे है ( वे पुन: विश्व में बापू-गाँधी के स्वप्नों के राम राज्य की स्थापना करा रहे है I ) अत: हम सबको सत्य धर्म और निर्विकारी मार्ग अपनाते हुए परमात्मा के इस महान कार्य में सहयोगी बनना   चाहिए I

कलियुग अभी बच्चा नहीं है बल्कि बुढ़ा हो गया है इसका विनाश निकट है और शीघ्र ही सतयुग आने वाला है I आज बहुत से लोग कहते है , " कलियुग अभी बच्चा है अभी तो इसके लाखो वर्ष और रहते है शस्त्रों के अनुसार अभी तो सृष्टि के महाविनाश में बहुत काल रहता है I " परन्तु अब परमपिता परमात्मा कहते है की अब तो कलियुग बुढ़ा हो चूका है I अब तो सृष्टि के महाविनाश की घडी निकट आ पहुंची है I अब सभी देख भी रहे है की यह मनुष्य सृष्टि काम, क्रोध,लोभ,मोह तथा अहंकार की चिता पर जल रही है I सृष्टि के महाविनाश के लिए एटम बम, हाइड्रोजन बम तथा मुसल भी बन चुके है I अत: अब भी यदि कोई कहता है कि महाविनाश दूर है, तो वह घोर अज्ञान में है और कुम्भकर्णी निंद्रा में सोया हुआ है, वह अपना अकल्याण कर रहा है I अब जबकि परमपिता परमात्मा शिव अवतरित होकर ज्ञान अमृत पिला रहे है, तो वे लोग उनसे वंचित है I आज तो वैज्ञानिक एवं विद्याओं के विशेषज्ञ भी कहते है कि जनसँख्या जिस तीव्र गति से बढ रही है, अन्न की उपज इस अनुपात से नहीं बढ रही है I इसलिए वे अत्यंत भयंकर अकाल के परिणामस्वरूप महाविनाश कि घोषणा करते है I पुनश्च, वातावरण प्रदुषण तथा पेट्रोल, कोयला इत्यादि शक्ति स्त्रोतों के कुछ वर्षो में ख़त्म हो जाने कि घोषणा भी वैज्ञानिक कर रहे है I अन्य लोग पृथ्वी के ठन्डे होते जाने होने के कारण हिम-पात कि बात बता रहे है I आज केवल रूस और अमेरिका के पास ही लाखो तन बमों जितने आणविक शस्त्र है I इसके अतिरिक्त, आज का जीवन ऐसा विकारी एवं तनावपूर्ण हो गया है कि अभी करोडो वर्ष तक कलियुग को मन्ना तो इन सभी बातो की ओर आंखे मूंदना ही है परन्तु सभी को याद रहे कि परमात्मा अधर्म के महाविनाश से ही देवी धर्म की पुन: सथापना भी कराते है I अत: सभी को मालूम होना चाहिए कि अब परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव सतयुगी पावन एवं देवी सृष्टि कि पुन: स्थापना करा रहे है I वे मनुष्य को देवता अथवा पतितो को पावन बना रहे है I अत: अब उन द्वारा सहज राजयोग तथा ज्ञान- यह अनमोल विद्या सीखकर जीवन को पावन, सतोप्रधन देवी, तथा आन्नदमय बनाने का सर्वोत्तम पुरुषार्थ करना चाहिए जो लोग यह समझ बैठे है कि अभी तो कलियुग में लाखो वर्ष शेष है, वे अपने ही सौभाग्य को लौटा रहे है! अब कलियुगी सृष्टि अंतिम श्वास ले रही है, यह मृत्यु-शैया पर है यह काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार रोगों द्वारा पीड़ित है I अत: इस सृष्टि की आयु अरबो वर्ष मानना भूल है I और कलियुग को अब बच्चा मानकर अज्ञान-निंद्रा में सोने वाले लीग "कुम्भकरण" है I जो मनुष्य इस ईश्वरीय सन्देश को एक कण से सुनकर दुसरे कण से निकल देते है उन्ही के कान ऐसे कुम्भ के समान है, क्योंकि कुम्भ बुद्धि-हीन होता है I

 कलियुग अभी बच्चा नहीं है बल्कि बुढ़ा हो गया है

                                  इसका विनाश निकट है  और शीघ्र ही सतयुग आने वाला है I

        आज बहुत  से लोग कहते है , " कलियुग अभी बच्चा है अभी तो इसके लाखो वर्ष और रहते है शस्त्रों के अनुसार अभी तो सृष्टि के महाविनाश में बहुत काल रहता है I  "
        
      परन्तु अब परमपिता परमात्मा कहते है की अब तो कलियुग बुढ़ा हो चूका है I अब तो सृष्टि के महाविनाश की घडी निकट आ पहुंची है I अब सभी देख भी रहे है की यह मनुष्य सृष्टि काम, क्रोध,लोभ,मोह तथा अहंकार की चिता पर जल रही है I सृष्टि के महाविनाश के लिए एटम  बम, हाइड्रोजन  बम तथा मुसल भी बन चुके है I अत: अब भी यदि कोई कहता है कि महाविनाश दूर है, तो वह घोर अज्ञान में है और कुम्भकर्णी निंद्रा में सोया हुआ है, वह अपना अकल्याण कर रहा है I अब जबकि परमपिता परमात्मा शिव अवतरित होकर ज्ञान अमृत पिला रहे है, तो वे लोग उनसे वंचित है I

   आज तो वैज्ञानिक एवं विद्याओं के विशेषज्ञ भी कहते है कि जनसँख्या जिस तीव्र गति से बढ रही है, अन्न की उपज इस अनुपात से नहीं बढ रही है I इसलिए  वे अत्यंत भयंकर अकाल के परिणामस्वरूप महाविनाश कि घोषणा करते है I पुनश्च, वातावरण प्रदुषण तथा पेट्रोल, कोयला इत्यादि शक्ति स्त्रोतों के कुछ वर्षो में ख़त्म हो जाने कि घोषणा भी वैज्ञानिक कर रहे है I अन्य लोग पृथ्वी के ठन्डे होते जाने होने के कारण हिम-पात कि बात बता रहे है I आज केवल रूस और अमेरिका के पास ही लाखो तन बमों जितने आणविक शस्त्र है I इसके अतिरिक्त, आज का जीवन ऐसा विकारी एवं तनावपूर्ण हो गया है कि अभी करोडो वर्ष तक कलियुग को मन्ना तो इन सभी बातो की ओर आंखे मूंदना ही है परन्तु सभी को याद रहे कि परमात्मा अधर्म के महाविनाश से ही देवी  धर्म की पुन: सथापना  भी कराते है I

        अत: सभी को मालूम होना चाहिए कि अब परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव सतयुगी पावन एवं देवी सृष्टि कि पुन: स्थापना करा रहे है I वे मनुष्य को देवता अथवा पतितो को पावन बना रहे है I अत: अब उन द्वारा सहज राजयोग तथा ज्ञान- यह अनमोल विद्या सीखकर जीवन को पावन, सतोप्रधन देवी, तथा आन्नदमय बनाने का सर्वोत्तम पुरुषार्थ करना चाहिए जो लोग यह समझ बैठे है कि अभी तो कलियुग में लाखो वर्ष शेष है, वे अपने ही सौभाग्य को लौटा रहे है!


    अब कलियुगी सृष्टि अंतिम श्वास ले रही है, यह मृत्यु-शैया पर है यह काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार रोगों द्वारा पीड़ित है I अत: इस सृष्टि की आयु अरबो वर्ष मानना भूल है I और कलियुग को अब बच्चा मानकर अज्ञान-निंद्रा में सोने वाले लीग "कुम्भकरण" है I  जो मनुष्य इस ईश्वरीय  सन्देश को एक कण से सुनकर दुसरे कण से निकल देते है उन्ही के कान ऐसे कुम्भ के समान है, क्योंकि कुम्भ बुद्धि-हीन होता है I

सर्व आत्माओं का पिता परमात्मा एक है और निराकार है प्राय: लोग यह नारा तो लगाते है कि " hindu, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी आपस में भाई-भाई है " परन्तु वे सभी आपस में भाई-भाई कैसे है और यदि वे भाई -भाई है तो उन सभी का एक पिता कौन है - इसे वे नही जानते देह कि दृष्टी से तो वे सभी भाई-भाई हो नही सकते क्योंकि उनके माता-पिता अलग-अलग है, आत्मिक दृष्टी से ही वे सभी एक परमपिता परमात्मा कि संतान होने के नाते से भाई-भाई है यंहा सभी आत्माओं के एक परमपिता का परिचय दिया गया है इस स्मृति में स्थित होने से राष्ट्रीय एकता हो सकती है I प्राय: सभी धर्मो के लोग कहते है कि परमात्मा एक है और सभी का पिता है और सभी मनुष्य आपस में भाई-भाई है परन्तु प्रश्न उठता है कि वह एक परलौकिक परमपिता कौन है जिसे सभी मानते है ? आप देखेंगे कि भले ही हरेक धर्म के स्थापक अलग-अलग है परन्तु हरेक धर्म के अनुयायी निराकार, ज्योति-स्वरुप परमात्मा शिव कि प्रतिमा (शिवलिंग) को किसी-न-किसी प्रकार मान्यता देते है Iभारत वर्ष में तो स्थान-स्थान पर परमपिता परमात्मा शिव के मंदिर है ही और भक्त जन "ओ३म नमो शिवाय" तथा तुम्ही हो माता तुम्ही पिता हो इत्यादि शब्दों से उनका गायन व् पूजन भी करते है और शिव को श्रीकृष्ण तथा श्री राम इत्यादि देवो के भी देव अर्थात परमपूज्य मानते ही है परन्तु भारत से बाहर, दुसरे धर्मो के लोग भी इसको मान्यता देते है I यहाँ सामने दिए चित्र में दिखाया गया है कि शिव का स्मृति चिन्ह सभी धर्मो में है I अमरनाथ, विश्वनाथ,सोमनाथ और पशुपतिनाथ इत्यादि मंदिरों में परमपिता परमात्मा शिव ही के स्मरण चिन्ह है "गोपेश्वर तथा रामेश्वर के जो मंदिर है उनसे स्पष्ट है कि शिव श्री कृष्ण तथा श्री राम के भी पूज्य है रजा विक्रमादित्य भी शिव ही कि पूजा करते थे I मुसलमानों के मुख्य तीर्थ मक्का में भी एक इसी आकार का पत्थर है जिसे कि सभी मुसलमान यात्री बड़े प्यार व सम्मान से चुमते है उसे वे "संगे-असवद" कहते है और इब्राहीम तथा मुहम्मद द्वारा उनकी स्थापना हुई मानते हैI परन्तु आज वे भी इस रहस्य को नही जानते है कि उनके धर्म में बुतपरस्ती (प्रतिमा पूजा) कि मान्यता न होते हुए भी इस आकार वाले पत्थर की स्थापना क्यों की गई है I और उनके यहाँ इसे प्यार व सम्मान से चूमने की प्रथा क्यों चली आती है ? इटली में कई रोमन कैथोलिक्स ईसाई भी इसी प्रकार वाली प्रतिमा को अपने ढंग से पूजते है ईसाइयों के धर्म स्थापक ईसा ने तथा सिक्खों के धर्म स्थापक नानकजी ने भी परमात्मा को एक निराकार ज्योति ही माना है Iयहूदी लोग तो परमात्मा को "जेहोवा" नाम से पुकारते है जो नाम शिव का ही रूपांतरण मालूम होता है जापान में भी बौद्द धर्म के कई अनुयायी इसी प्रकार की एक प्रतिमा अपने सामने रखकर उस पर अपना मन एकाग्र करते है I परन्तु समयांतर में सभी धर्मो के लोग यह मूल बात भूल गए की शिवलिंग सभी मनुष्यात्माओं के परमपिता का स्मरण-चिन्ह है यदि मुसलमान यह बात जानते होते तो वे सोमनाथ को मंदिर को कभी न लुटते , बल्कि मुसलमान ,ईसाई इत्यादि सभी शर्मो के अनुयायी भारत को ही परमपिता परमात्मा की अवतार-भूमि मानकर इसे अपना सबसे मुख्य तीर्थ मानते और इसी प्रकार संसार का इतिहास ही कुछ और होता परन्तु एक पिता को भूलने के कारण संसार में लड़ाई-झगडा, दुःख तथा क्लेश हुआ और सभी अनाथ व कंगाल बन गए I

सर्व आत्माओं का पिता परमात्मा एक है और निराकार है प्राय: लोग यह नारा तो लगाते है कि " hindu, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी आपस में भाई-भाई है " परन्तु वे सभी आपस में भाई-भाई कैसे है और यदि वे भाई -भाई है तो उन सभी का एक पिता कौन है - इसे वे नही जानते देह कि दृष्टी से तो वे सभी भाई-भाई हो नही सकते क्योंकि उनके माता-पिता अलग-अलग है, आत्मिक दृष्टी से ही वे सभी एक परमपिता परमात्मा कि संतान होने के नाते से भाई-भाई है यंहा सभी आत्माओं के एक परमपिता का परिचय दिया गया है इस स्मृति में स्थित होने से राष्ट्रीय एकता हो सकती है I प्राय: सभी धर्मो के लोग कहते है कि परमात्मा एक है और सभी का पिता है और सभी मनुष्य आपस में भाई-भाई है परन्तु प्रश्न उठता है कि वह एक परलौकिक परमपिता कौन है जिसे सभी मानते है ? आप देखेंगे कि भले ही हरेक धर्म के स्थापक अलग-अलग है परन्तु हरेक धर्म के अनुयायी निराकार, ज्योति-स्वरुप परमात्मा शिव कि प्रतिमा (शिवलिंग) को किसी-न-किसी प्रकार मान्यता देते है Iभारत वर्ष में तो स्थान-स्थान पर परमपिता परमात्मा शिव के मंदिर है ही और भक्त जन "ओ३म नमो शिवाय" तथा तुम्ही हो माता तुम्ही पिता हो इत्यादि शब्दों से उनका गायन व् पूजन भी करते है और शिव को श्रीकृष्ण तथा श्री राम इत्यादि देवो के भी देव अर्थात परमपूज्य मानते ही है परन्तु भारत से बाहर, दुसरे धर्मो के लोग भी इसको मान्यता देते है I यहाँ सामने दिए चित्र में दिखाया गया है कि शिव का स्मृति चिन्ह सभी धर्मो में है I अमरनाथ, विश्वनाथ,सोमनाथ और पशुपतिनाथ इत्यादि मंदिरों में परमपिता परमात्मा शिव ही के स्मरण चिन्ह है "गोपेश्वर तथा रामेश्वर के जो मंदिर है उनसे स्पष्ट है कि शिव श्री कृष्ण तथा श्री राम के भी पूज्य है रजा विक्रमादित्य भी शिव ही कि पूजा करते थे I मुसलमानों के मुख्य तीर्थ मक्का में भी एक इसी आकार का पत्थर है जिसे कि सभी मुसलमान यात्री बड़े प्यार व सम्मान से चुमते है उसे वे "संगे-असवद" कहते है और इब्राहीम तथा मुहम्मद द्वारा उनकी स्थापना हुई मानते हैI परन्तु आज वे भी इस रहस्य को नही जानते है कि उनके धर्म में बुतपरस्ती (प्रतिमा पूजा) कि मान्यता न होते हुए भी इस आकार वाले पत्थर की स्थापना क्यों की गई है I और उनके यहाँ इसे प्यार व सम्मान से चूमने की प्रथा क्यों चली आती है ? इटली में कई रोमन कैथोलिक्स ईसाई भी इसी प्रकार वाली प्रतिमा को अपने ढंग से पूजते है ईसाइयों के धर्म स्थापक ईसा ने तथा सिक्खों के धर्म स्थापक नानकजी ने भी परमात्मा को एक निराकार ज्योति ही माना है Iयहूदी लोग तो परमात्मा को "जेहोवा" नाम से पुकारते है जो नाम शिव का ही रूपांतरण मालूम होता है जापान में भी बौद्द धर्म के कई अनुयायी इसी प्रकार की एक प्रतिमा अपने सामने रखकर उस पर अपना मन एकाग्र करते है I परन्तु समयांतर में सभी धर्मो के लोग यह मूल बात भूल गए की शिवलिंग सभी मनुष्यात्माओं के परमपिता का स्मरण-चिन्ह है यदि मुसलमान यह बात जानते होते तो वे सोमनाथ को मंदिर को कभी न लुटते , बल्कि मुसलमान ,ईसाई इत्यादि सभी शर्मो के अनुयायी भारत को ही परमपिता परमात्मा की अवतार-भूमि मानकर इसे अपना सबसे मुख्य तीर्थ मानते और इसी प्रकार संसार का इतिहास ही कुछ और होता परन्तु एक पिता को भूलने के कारण संसार में लड़ाई-झगडा, दुःख तथा क्लेश हुआ और सभी अनाथ व कंगाल बन गए I


मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ? मनुष्य का वर्तमान जीवन बड़ा अनमोल है क्योंकि अब संगमयुग में ही वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करके जन्म-जन्मान्तर के लिए सर्वोत्तम प्रारब्ध बना सकता है और अतुल हीरो-तुल्य कमाई कर सकता है I वह इसी जन्म में सृष्टि का मालिक अथवा जगतजीत बनने का पुरुषार्थ कर सकता है I परन्तु आज मनुष्य को जीवन का लक्ष्य मालूम न होने के कारण वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करने की बजाय इसे विषय-विकारो में गँवा रहा है I अथवा अल्पकाल की प्राप्ति में लगा रहा है I आज वह लौकिक शिक्षा द्वारा वकील, डाक्टर, इंजिनीयर बनने का पुरुषार्थ कर रहा है और कोई तो राजनीति में भाग लेकर देश का नेता, मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बनने के प्रयत्न में लगा हुआ है अन्य कोई इन सभी का सन्यास करके, "सन्यासी" बनकर रहना चाहता है I परन्तु सभी जानते है की म्रत्यु-लोक में तो राजा-रानी, नेता वकील, इंजीनियर, डाक्टर, सन्यासी इत्यादि कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है I सभी को तन का रोग, मन की अशांति, धन की कमी, जानता की चिंता या प्रकृति के द्वारा कोई पीड़ा, कुछ न कुछ तो दुःख लगा ही हुआ है I अत: इनकी प्राप्ति से मनुष्य जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि मनुष्य तो सम्पूर्ण - पवित्रता, सदा सुख और स्थाई शांति चाहता है I चित्र में अंकित किया गया है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य जीवन-मुक्ति की प्राप्ति अठेया वैकुण्ठ में सम्पूर्ण सुख-शांति-संपन्न श्री नारायण या श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति ही है I क्योंकि वैकुण्ठ के देवता तो अमर मने गए है, उनकी अकाल म्रत्यु नही होती; उनकी काया सदा निरोगी रहती है I और उनके खजाने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती इसीलिए तो मनुष्य स्वर्ग अथवा वैकुण्ठ को याद करते है और जब उनका कोई प्रिय सम्बन्धी शरीर छोड़ता है तो वह कहते है कि -" वह स्वर्ग सिधार गया है " I इस पद की प्राप्ति स्वयं परमात्मा ही ईश्वरीय विद्या द्वारा कराते है इस लक्ष्य की प्राप्ति कोई मनुष्य अर्थात कोई साधू-सन्यासी, गुरु या जगतगुरु नहीं करा सकता बल्कि यह दो ताजो वाला देव-पद अथवा राजा-रानी पद तो ज्ञान के सागर परमपिता परमात्मा शिव ही से प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग के अभ्यास से प्राप्त होता है I अत: जबकि परमपिता परमात्मा शिव ने इस सर्वोत्तम ईश्वरीय विद्या की शिक्षा देने के लिए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय की स्थापना की है I तो सभी नर-नारियो को चाहिए की अपने घर-गृहस्थ में रहते हुए, अपना कार्य धंधा करते हुए, प्रतिदिन एक-दो- घंटे निकलकर अपने भावी जन्म-जन्मान्तर के कल्याण के लिए इस सर्वोत्तम तथा सहज शिक्षा को प्राप्त करे I इस विद्या की प्राप्ति के लिए कुछ भी खर्च करने की आवश्यकता नही है, इसीलिए इसे तो निर्धन व्यक्ति भी प्राप्त कर अपना सौभाग्य बना सकते है I इस विद्या को तो कन्याओ, मतों, वृद्ध-पुरुषो, छोटे बच्चो और अन्य सभी को प्राप्त करने का अधिकार है क्योंकि आत्मा की दृष्टी से तो सभी परमपिता परमात्मा की संतान है I अभी नहीं तो कभी नहीं वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है I इसलिय अब यह पुरुषार्थ न किया तो फिर यह कभी न हो सकेगा क्योंकि स्वयं ज्ञान सागर परमात्मा द्वारा दिया हुआ यह मूल गीता - ज्ञान कल्प में एक ही बार इस कल्याणकारी संगम युग में ही प्राप्त हो सकता है I

मनुष्य जीवन का लक्ष्य  क्या है  ?
                   मनुष्य का वर्तमान जीवन बड़ा अनमोल है क्योंकि अब संगमयुग में ही वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करके जन्म-जन्मान्तर के लिए सर्वोत्तम प्रारब्ध बना सकता है और अतुल हीरो-तुल्य कमाई कर सकता है I 

         वह इसी जन्म में सृष्टि का मालिक अथवा जगतजीत बनने का पुरुषार्थ कर सकता है I परन्तु आज मनुष्य को जीवन का लक्ष्य मालूम न होने के कारण वह सर्वोत्तम पुरुषार्थ करने की बजाय इसे विषय-विकारो में गँवा रहा है I अथवा अल्पकाल की प्राप्ति में लगा रहा है I आज वह लौकिक शिक्षा द्वारा वकील, डाक्टर, इंजिनीयर बनने का पुरुषार्थ कर रहा है और कोई तो राजनीति में भाग लेकर देश का नेता, मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बनने के प्रयत्न में लगा हुआ है अन्य कोई इन सभी का सन्यास करके, "सन्यासी" बनकर रहना चाहता है I परन्तु सभी जानते है की म्रत्यु-लोक  में तो राजा-रानी, नेता वकील, इंजीनियर, डाक्टर, सन्यासी इत्यादि कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है I सभी को तन का रोग, मन की अशांति, धन की कमी, जानता की चिंता या प्रकृति के द्वारा कोई पीड़ा, कुछ न कुछ तो दुःख लगा ही हुआ है I अत: इनकी प्राप्ति से मनुष्य जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि मनुष्य तो सम्पूर्ण - पवित्रता, सदा सुख और स्थाई शांति चाहता है I

           चित्र में अंकित किया गया है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य जीवन-मुक्ति की प्राप्ति अठेया वैकुण्ठ में सम्पूर्ण सुख-शांति-संपन्न श्री नारायण या श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति ही है I क्योंकि वैकुण्ठ के देवता तो अमर मने गए है, उनकी अकाल म्रत्यु नही होती; उनकी काया सदा निरोगी रहती है I और उनके खजाने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती इसीलिए तो मनुष्य स्वर्ग अथवा वैकुण्ठ को याद करते है और जब उनका कोई प्रिय सम्बन्धी शरीर छोड़ता है तो वह कहते है कि -" वह स्वर्ग सिधार गया है " I

                              इस पद की प्राप्ति स्वयं परमात्मा ही ईश्वरीय विद्या द्वारा कराते है 
        इस लक्ष्य की प्राप्ति कोई मनुष्य अर्थात कोई साधू-सन्यासी, गुरु या जगतगुरु नहीं करा सकता बल्कि यह दो ताजो वाला देव-पद अथवा राजा-रानी पद तो ज्ञान के सागर परमपिता परमात्मा शिव ही से प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग के अभ्यास से प्राप्त होता है I
         अत: जबकि परमपिता परमात्मा शिव ने इस सर्वोत्तम ईश्वरीय विद्या की शिक्षा देने के लिए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व-विद्यालय की स्थापना की है I तो सभी नर-नारियो को चाहिए की अपने घर-गृहस्थ में रहते हुए, अपना कार्य धंधा करते हुए, प्रतिदिन एक-दो- घंटे निकलकर अपने भावी जन्म-जन्मान्तर के कल्याण के लिए इस सर्वोत्तम तथा सहज शिक्षा को प्राप्त करे I
      इस विद्या की प्राप्ति के लिए कुछ भी खर्च करने की आवश्यकता नही है, इसीलिए इसे तो निर्धन व्यक्ति भी प्राप्त कर अपना सौभाग्य  बना सकते है I इस विद्या को तो कन्याओ, मतों, वृद्ध-पुरुषो, छोटे बच्चो और अन्य सभी को प्राप्त करने का अधिकार है क्योंकि आत्मा की दृष्टी से तो सभी परमपिता परमात्मा की संतान है I

                                                        अभी नहीं तो कभी नहीं  
       वर्तमान जन्म सभी का अंतिम जन्म है I इसलिय अब यह पुरुषार्थ न किया तो फिर यह कभी न हो सकेगा क्योंकि स्वयं ज्ञान सागर परमात्मा द्वारा दिया हुआ यह मूल गीता - ज्ञान कल्प में एक ही बार इस कल्याणकारी संगम युग में ही प्राप्त हो सकता है I

            

क्या रावण के दस सिर थे, रावण किसका प्रतीक है ? भारत के लोग प्रतिवर्ष रावण का बुत जलाते है I उनका काफी विश्वास है की एक दस सिर वाला रावण श्रीलंका का रजा था, वह एक बहुत बड़ा राक्षस था और उसने श्री सीता का अपहरण किया था I वे यह भी मानते है की रावण बहुत बड़ा विद्वान था इसलिए वे उसके हाथ में वेद, शास्त्र इत्यादि दिखाते है I साथ ही वे उसके शीश पर गधे का सिर भी दिखाते है I जिसका अर्थ वे यह लेते है की वह हठी ओर मतिहीन था लेकिन अब परमपिता परमात्मा शिव ने समझाया है की रावण कोई दस शीश वाला राक्षस ( मनुष्य) नही था बल्कि रावण का पुतला वास्तव में बुरे का प्रतीक है रावण के दस सिर पुरुष और स्त्री के पांच-पांच विकारो को प्रकट करते है I और उसकी तुलना एक ऐसे समाज का प्रतिरूप है जो इस प्रकार के विकारी स्त्री-पुरुष का बना हो इस समाज के लोग बहुत ग्रन्थ और शास्त्र पड़े हुए तथा विज्ञानं में उच्च शिक्षा प्राप्त भी हो सकते है लेकिन वे हिंसा और अन्य विकारो के वशीभूत होते है I इस तरह उनकी विद्वता उन पर बोझ मात्र होती है I वे उद्दंड बन गए होते है I और भलाई की बातो के लिए उनके कान बंद हो गए होते है I " रावण " शब्द का अर्थ ही है - जो दुसरो को रुलाने वाला है I अत: यह बुरे कर्मो का प्रतीक है, क्योंकि बुरे कर्म ही तो मनुष्य के जीवन में दुःख व् आंसू लाते है अतएव सीता के अपहरण का भाव वास्तव में आत्माओ की शुद्ध भावनाओ ही के अपहरण का सूचक है I इसी प्रकार कुम्भकरण आलस्य का तथा " मेघनाथ" कटु वचनों का प्रतीक है और यह सारा संसार ही एक महाद्वीप है अथवा मनुष्य का मन ही लंका है I इस विचार से हम कह सकते है की इस विश्व में द्वापरयुग और कलियुग में ( अर्थात २५०० वर्षो) " रावण राज्य" होता है क्योंकि इन दो युगों में लोग माया या विकारो के वशीभूत होते है उस समय अनेक पूजा पाठ करने तथा शास्त्र पढने के बाद भी मनुष्य विकारी, अधर्मी बन जाते है रोग ,शोक , अशांति और दुःख का सर्वत्र बोल बाला होता है I मनुष्यों का खानपान असुरो जैसा ( मांस, मदिरा, तामसी भोजन आदि) बन जाता है वे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारो के वशीभूत होकर एक दुसरे को दुःख देते और रुलाते रहते है I ठीक इसके विपरीत स्वर्ण युग और रजत युग में राम-राज्य था, क्योंकि परमपिता, जिन्हें की रमणीक अथवा सुखदाता होने के कारण " राम" भी कहते है, ने उस पवित्रता, शांति और सुख संपन्न देसी स्वराज्य की पुन: स्थापना की थी उस राम राज्य के बारे में प्रसिद्द है की तब शहद और दूध की नदिया बहती थी और शेर तथा गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे I अब वर्तमान में मनुष्यात्माये फिर से माया अर्थात रावण के प्रभाव में है औध्योगिक उन्नति, प्रचुर धन-धन्य और सांसारिक सुख - सभी साधन होते हुए भी मनुष्य को सच्चे सुख शांति की प्राप्ति नहीं है I घर-घर में कलह कलेश लड़ाई-झगडा और दुःख अशांति है तथा मिलावट, अधर्म और असत्यता का ही राज्य है तभी तो ऐसे " रावण राज्य" कहते है I अब परमात्मा शिव गीता में दिए अपने वचन के अनुसार सहज ज्ञान और राजयोग की शिक्षा दे रहे है और मनुष्यात्माओ के मनोविकारो को ख़त्म करके उनमे देवी गुण धारण करा रहे है ( वे पुन: विश्व में बापू-गाँधी के स्वप्नों के राम राज्य की स्थापना करा रहे है I ) अत: हम सबको सत्य धर्म और निर्विकारी मार्ग अपनाते हुए परमात्मा के इस महान कार्य में सहयोगी बनना चाहिए I

 क्या रावण के दस सिर  थे, रावण किसका प्रतीक है  ?
भारत के लोग प्रतिवर्ष रावण का बुत जलाते है I उनका काफी विश्वास है की एक दस सिर वाला रावण श्रीलंका का रजा था, वह एक बहुत बड़ा राक्षस था और उसने श्री सीता का अपहरण  किया  था I वे  यह  भी  मानते  है की रावण बहुत बड़ा विद्वान  था इसलिए  वे  उसके  हाथ  में  वेद,  शास्त्र  इत्यादि   दिखाते  है I साथ  ही  वे  उसके  शीश  पर    गधे का सिर भी दिखाते है I जिसका अर्थ वे यह लेते है की वह हठी ओर मतिहीन था लेकिन अब परमपिता परमात्मा शिव ने समझाया है की रावण कोई दस शीश वाला राक्षस ( मनुष्य) नही था बल्कि रावण का पुतला वास्तव में बुरे का प्रतीक है रावण के दस सिर पुरुष और स्त्री के पांच-पांच विकारो को प्रकट करते है I और उसकी तुलना एक ऐसे समाज का प्रतिरूप है जो इस प्रकार के विकारी स्त्री-पुरुष का बना हो इस समाज के लोग बहुत ग्रन्थ और शास्त्र पड़े  हुए तथा विज्ञानं में उच्च शिक्षा प्राप्त भी हो सकते है लेकिन वे हिंसा और अन्य विकारो के वशीभूत होते है I इस तरह उनकी विद्वता उन पर बोझ मात्र होती है I वे उद्दंड  बन गए होते है I और भलाई की बातो के लिए उनके कान बंद हो गए होते है I " रावण " शब्द का अर्थ ही है - जो दुसरो को रुलाने वाला है I अत: यह बुरे कर्मो का प्रतीक है, क्योंकि बुरे कर्म ही तो मनुष्य के जीवन में दुःख व् आंसू लाते है  अतएव  सीता के अपहरण का भाव वास्तव में आत्माओ की शुद्ध भावनाओ ही के अपहरण का सूचक है I इसी प्रकार कुम्भकरण आलस्य का तथा " मेघनाथ" कटु वचनों का प्रतीक है और यह सारा संसार ही एक महाद्वीप है अथवा मनुष्य  का मन ही लंका है I 
           
                   इस विचार से हम कह सकते है की इस विश्व में द्वापरयुग और कलियुग में ( अर्थात २५०० वर्षो) " रावण राज्य" होता है क्योंकि इन दो युगों में लोग माया या विकारो के वशीभूत होते है उस समय अनेक पूजा पाठ करने  तथा शास्त्र पढने के बाद भी मनुष्य विकारी, अधर्मी   बन जाते  है रोग ,शोक ,  अशांति  और दुःख का सर्वत्र   बोल  बाला  होता है I मनुष्यों   का खानपान  असुरो जैसा ( मांस, मदिरा, तामसी भोजन  आदि) बन जाता है वे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारो के वशीभूत होकर एक दुसरे को दुःख देते और रुलाते रहते है I ठीक   इसके विपरीत स्वर्ण युग और रजत युग में राम-राज्य था, क्योंकि परमपिता, जिन्हें की रमणीक अथवा  सुखदाता होने के कारण " राम" भी कहते है, ने उस पवित्रता, शांति और सुख संपन्न देसी स्वराज्य की पुन: स्थापना की थी उस राम राज्य के बारे में प्रसिद्द है की तब शहद और दूध की नदिया बहती थी और शेर तथा गाय एक ही घाट पर पानी पीते थे I

              अब वर्तमान  में मनुष्यात्माये फिर से माया अर्थात रावण के प्रभाव में है औध्योगिक उन्नति, प्रचुर धन-धन्य और सांसारिक सुख - सभी साधन होते हुए भी मनुष्य  को सच्चे सुख शांति की प्राप्ति नहीं है I घर-घर में कलह कलेश  लड़ाई-झगडा और दुःख अशांति है तथा मिलावट, अधर्म और असत्यता का ही राज्य है तभी तो ऐसे " रावण राज्य" कहते है I

          अब परमात्मा शिव गीता में दिए अपने वचन के अनुसार सहज ज्ञान और राजयोग की शिक्षा दे रहे है और मनुष्यात्माओ  के मनोविकारो को ख़त्म करके उनमे देवी गुण धारण करा रहे है ( वे पुन: विश्व में बापू-गाँधी के स्वप्नों के राम राज्य की स्थापना करा रहे है I ) अत: हम सबको सत्य धर्म और निर्विकारी मार्ग अपनाते हुए परमात्मा के इस महान कार्य में सहयोगी बनना   चाहिए I

Saturday, 12 November 2011

सृष्टि नाटक का रचयिता और निर्देशक कौन है यह मनुष्य सृष्टि पृकृति-पुरुष का एक अनादी खेल है इसकी कहानी को जानकर मनुष्यात्मा बहुत ही आन्नद प्राप्त कर सकती है I सृष्टि रूपी नाटक के चार पट सामने दिए गए चित्र में दिखाया गया है कि स्वस्तिक सृष्टि- चक्र को चार बराबर भागो में बांटता है -- सतयुग,त्रेतायुग , द्वापर और कलियुग I

 सृष्टि नाटक का रचयिता और निर्देशक कौन है
      यह मनुष्य सृष्टि पृकृति-पुरुष का एक अनादी खेल है इसकी कहानी को जानकर मनुष्यात्मा बहुत ही आन्नद प्राप्त कर सकती है I
                                                            सृष्टि रूपी नाटक के चार पट
     सामने दिए गए चित्र में दिखाया गया है कि स्वस्तिक सृष्टि- चक्र को चार बराबर भागो में बांटता है -- सतयुग,त्रेतायुग , द्वापर और कलियुग I
   सृष्टि नाटक में हर एक आत्मा का एक निश्चित समय पर परमधाम से इस सृष्टि रूपी नाटक के मंच पर आती है I सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य सामने आते है I और इन दो युगों की सम्पूर्ण सुखपूर्ण सृष्टि में पृथ्वी-मंच पर एक "अदि सनातन देवी देवता धर्म वंश" की ही मनुष्यात्माओ का पार्ट होता है I और अन्य सभी धर्म-वंशो की आत्माए परमधाम में होती है I अत: इन दो युगों में केवल इन्ही दो वंशो की ही मनुष्यात्माये अपनी-अपनी पवित्रता की स्तागे के अनुसार नम्बरवार आती है इसलिए, इन दो युगों में सभी अद्वेत पुर निर्वैर स्वभाव वाले होते है I
     द्वापरयुग में इसी धर्म की रजोगुणी अवस्था हो जाने से इब्राहीम द्वारा इस्लाम धर्म-वंश की, बुद्ध द्वारा बौद्ध-धर्म वंश की और ईसा द्वारा ईसाई धर्म की स्थापना होती है I अत: इन चार मुख्य धर्म वंशो के पिता ही संसार के मुख्य एक्टर्स  है और इन चार धर्म के शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है इसके अतिरिक्त, सन्यास धर्म के स्थापक नानक भी इस विश्व नाटक के मुख्य एक्टरो में से है I परन्तु फिर भी मुख्य रूप में पहले बताये गए चार धर्मो पर ही सारा विश्व नाटक आधारित है इस अनेक मत-मतान्तरो के कारण द्वापर युग तथा कलियुग की सृष्टि में द्वेत, लड़ाई झगडा तथा दुःख होता है I
      कलियुग के अंत में, जब धर्म की आती ग्लानी हो जाती है, अर्थात विश्व का सबसे पहला " अदि सनातन देवी देवता धर्म" बहुत क्षीण हो जाता है और मनुष्य अत्यंत पतित हो जाते है, तब इस सृष्टि के रचयिता तथा निर्देशक परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में स्वयं अवतरित होते है I वे प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मुख-वंशी  कन्या --" ब्रह्माकुमारी सरस्वती " तथा अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मानियो को रचते है और उन द्वारा पुन: सभी को अलौकिक माता-पिता के रूप में मिलते है तथा ज्ञान द्वारा उनकी मार्ग-प्रदर्शना करते है और उन्हें मुक्ति तथा जीवनमुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार देते है I अत: प्रजपिता बह्मा तथा जगदम्बा सरस्वती, जिन्हें ही "एडम"  अथवा "इव" अथवा "आदम और हव्वा" भी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका है I क्योंकि इन्ही द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते है कलियुग के अंत और सतयुग के आरंभ का यह छोटा सा संगम, अर्थात संगमयुग, जब परमात्मा अवतरित होते है, बहुत ही महत्वपूर्ण है I
                                          विश्व के इतिहास और भूगोल की पुनरावृत्ति
  चित्र में यह भी दिखाया गया है कि कलियुग के अंत में परमपिता परमात्मा शिव जब महादेव शंकर के द्वारा सृष्टि का महाविनाश करते है तब लगभग सभी आत्मा रूपी एक्टर अपने प्यारे देश, अर्थात मुक्तिधाम को वापस लौट जाते है और फिर सतयुग के आरंभ से "अदि सनातन देवी देवता धर्म" कि मुख्य मनुष्यात्माये इस सृष्टि-मंच पर आना शुरू कर देती है I फिर २५०० वर्ष के बाद, द्वापरयुग के प्रारंभ से इब्राहीम के इस्लाम घराने की आत्माए, फिर बौद्ध धर्म वंश की  
       आत्माए, फिर ईसाई धर्म वंश की आत्माए अपने-अपने समय पर सृष्टि-मंच पर फिर आकर अपना-अपना         अनादि-निश्चित पार्ट बजाते है I और अपनी स्वर्णिम, रजत, ताम्र और लोह, चारो अवस्थाओ को पर करती है इस प्रकार, यह अनादि निश्चित सृष्टि-नाटक अनादि काल से हर ५००० वर्ष के बाद हुबहू पुनरावृत्त होता ही रहता है I

कलियुग अभी बच्चा नहीं है बल्कि बुढ़ा हो गया है इसका विनाश निकट है और शीघ्र ही सतयुग आने वाला है I

 कलियुग अभी बच्चा नहीं है बल्कि बुढ़ा हो गया है

                                  इसका विनाश निकट है  और शीघ्र ही सतयुग आने वाला है I

        आज बहुत  से लोग कहते है , " कलियुग अभी बच्चा है अभी तो इसके लाखो वर्ष और रहते है शस्त्रों के अनुसार अभी तो सृष्टि के महाविनाश में बहुत काल रहता है I  "
        
      परन्तु अब परमपिता परमात्मा कहते है की अब तो कलियुग बुढ़ा हो चूका है I अब तो सृष्टि के महाविनाश की घडी निकट आ पहुंची है I अब सभी देख भी रहे है की यह मनुष्य सृष्टि काम, क्रोध,लोभ,मोह तथा अहंकार की चिता पर जल रही है I सृष्टि के महाविनाश के लिए एटम  बम, हाइड्रोजन  बम तथा मुसल भी बन चुके है I अत: अब भी यदि कोई कहता है कि महाविनाश दूर है, तो वह घोर अज्ञान में है और कुम्भकर्णी निंद्रा में सोया हुआ है, वह अपना अकल्याण कर रहा है I अब जबकि परमपिता परमात्मा शिव अवतरित होकर ज्ञान अमृत पिला रहे है, तो वे लोग उनसे वंचित है I

   आज तो वैज्ञानिक एवं विद्याओं के विशेषज्ञ भी कहते है कि जनसँख्या जिस तीव्र गति से बढ रही है, अन्न की उपज इस अनुपात से नहीं बढ रही है I इसलिए  वे अत्यंत भयंकर अकाल के परिणामस्वरूप महाविनाश कि घोषणा करते है I पुनश्च, वातावरण प्रदुषण तथा पेट्रोल, कोयला इत्यादि शक्ति स्त्रोतों के कुछ वर्षो में ख़त्म हो जाने कि घोषणा भी वैज्ञानिक कर रहे है I अन्य लोग पृथ्वी के ठन्डे होते जाने होने के कारण हिम-पात कि बात बता रहे है I आज केवल रूस और अमेरिका के पास ही लाखो तन बमों जितने आणविक शस्त्र है I इसके अतिरिक्त, आज का जीवन ऐसा विकारी एवं तनावपूर्ण हो गया है कि अभी करोडो वर्ष तक कलियुग को मन्ना तो इन सभी बातो की ओर आंखे मूंदना ही है परन्तु सभी को याद रहे कि परमात्मा अधर्म के महाविनाश से ही देवी  धर्म की पुन: सथापना  भी कराते है I

        अत: सभी को मालूम होना चाहिए कि अब परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव सतयुगी पावन एवं देवी सृष्टि कि पुन: स्थापना करा रहे है I वे मनुष्य को देवता अथवा पतितो को पावन बना रहे है I अत: अब उन द्वारा सहज राजयोग तथा ज्ञान- यह अनमोल विद्या सीखकर जीवन को पावन, सतोप्रधन देवी, तथा आन्नदमय बनाने का सर्वोत्तम पुरुषार्थ करना चाहिए जो लोग यह समझ बैठे है कि अभी तो कलियुग में लाखो वर्ष शेष है, वे अपने ही सौभाग्य को लौटा रहे है!


    अब कलियुगी सृष्टि अंतिम श्वास ले रही है, यह मृत्यु-शैया पर है यह काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार रोगों द्वारा पीड़ित है I अत: इस सृष्टि की आयु अरबो वर्ष मानना भूल है I और कलियुग को अब बच्चा मानकर अज्ञान-निंद्रा में सोने वाले लीग "कुम्भकरण" है I  जो मनुष्य इस ईश्वरीय  सन्देश को एक कण से सुनकर दुसरे कण से निकल देते है उन्ही के कान ऐसे कुम्भ के समान है, क्योंकि कुम्भ बुद्धि-हीन होता है I

सातारा, दि. 15 : प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली असून दिल्ली येथे एका विशेष समारंभामध्ये इंडिया बुक ऑफ रेकार्डचे मुख्य संपादक विश्वरूपराय चौधरी यांच्या हस्ते त्यांना सन्मानित करण्यात आले. भगवानभाईंनी आतापर्यंत भारतातील विविध प्रांतातील 5000 शाळा, महाविद्यालयांमध्ये जाऊन लाखो विद्यार्थ्यांना मूल्यनिष्ठ शिक्षणाद्वारे नैतिक व अध्यात्मिक विकासासाठी उद्‌बोधन केले आहे. 800 कारागृहांमध्ये जाऊन हजारो कैद्यांना गुन्हेगारी सोडून आपल्या जीवनामध्ये सद्‌भावना, मूल्य तसेच मानवतेला स्थापित करण्यासाठी प्रेरित केले आहे. या कार्याची नोंद घेवून त्यांची या पुरस्कारासाठी निवड करण्यात आली. सत्कारानंतर प्रतिक्रिया व्यक्त करताना ब्र. कु.भगवानभाई म्हणाले, समाजामधील भ्रष्टाचार, व्यसनाधिनता, गुन्हेगारी समाप्त करावयाची असेल तर त्यासाठी शिक्षणामध्ये परिवर्तनाची आवश्यकता आहे. शाळा/ महाविद्यालयांमधूनच समाजाच्या प्रत्येक क्षेत्रामध्ये व्यक्ती प्रवेश करते. आजचा विद्यार्थीच उद्याचा समाज आहे. म्हणूनच समाजाच्या विकासासाठी शिक्षणामध्ये मूल्य व अध्यात्मिकतेचा समावेश करण्याची आवश्यकता आहे. सांगली जिल्ह्यात आटपाडी तालुक्यातील तळेवाडी या छोट्याशा खेड्यात एका निरक्षर व गरीब कुटुंबात जन्मलेल्या भगवानभाईंना लिहिण्या- वाचण्यासाठी वही, पुस्तकेसुध्दा मिळत नव्हती. वयाच्या 11 वर्षी त्यांनी शाळेत जायला सुरूवात केली. ते जुन्या रद्दीमधील वह्यांची कोरी पाने व शाईने लिहिलेली पाने पाण्याने धुवून, सुकवून त्या पानांचा उपयोग लिहिण्यासाठी करीत. अशाच रद्दीमध्ये त्यांना ब्रह्माकुमारी संस्थेच्या एका पुस्तकाची काही पाने मिळाली. या रद्दीतील पानानींच त्यांचे जीवन बदलून गेले. त्या पानावर असलेल्या पत्त्यावरून ते ब्रह्माकुमारीसंस्थेमध्ये पोहचले व तेथील ईश्वरीय ज्ञान व राजयोगाचा अभ्यास करून आपले मनोबल वाढविले व त्या फलस्वरूप माऊंट अबू येथील आपले सेवाकार्य सांभाळून आजपर्यंत त्यांनी 5000 शाळा, महाविद्यालये व 800 कारागृहात जाऊन या सेवेचे एक रेकॉर्ड प्रस्थापित केले. वर्तमानसमयी ब्रह्माकुमार भगवानभाई ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालयाच्या शांतीवन या मुख्यालयातील विशाल किचनमध्ये सेवारत असून अनेक मासिकातून तसेच वृत्तपत्रातून आतापर्यंत 2000 हून अधिक लेख लिहिले आहेत. त्यांना मिळालेल्या या सन्मानाबद्दल सातारा सेवाकेंद्राच्या संचालिका ब्रह्माकुमारी रूक्मिणी बहेनजी व शिक्षणाधिकारी (माध्य.) मकरंद गोंधळी यांनी त्यांचे अभिनंदन केले.



















सातारा, दि. 15 : प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली असून दिल्ली येथे एका विशेष समारंभामध्ये इंडिया बुक ऑफ रेकार्डचे मुख्य संपादक विश्वरूपराय चौधरी यांच्या हस्ते त्यांना सन्मानित करण्यात आले.
भगवानभाईंनी आतापर्यंत भारतातील विविध प्रांतातील 5000 शाळा, महाविद्यालयांमध्ये जाऊन लाखो विद्यार्थ्यांना मूल्यनिष्ठ शिक्षणाद्वारे नैतिक व अध्यात्मिक विकासासाठी उद्‌बोधन केले आहे. 800 कारागृहांमध्ये जाऊन हजारो कैद्यांना गुन्हेगारी सोडून आपल्या जीवनामध्ये सद्‌भावना, मूल्य तसेच मानवतेला स्थापित करण्यासाठी प्रेरित केले आहे. या कार्याची नोंद घेवून त्यांची या पुरस्कारासाठी निवड करण्यात आली.
सत्कारानंतर प्रतिक्रिया व्यक्त करताना ब्र. कु.भगवानभाई म्हणाले,  समाजामधील भ्रष्टाचार, व्यसनाधिनता, गुन्हेगारी समाप्त करावयाची असेल तर त्यासाठी शिक्षणामध्ये परिवर्तनाची आवश्यकता आहे. शाळा/ महाविद्यालयांमधूनच समाजाच्या प्रत्येक क्षेत्रामध्ये व्यक्ती प्रवेश करते. आजचा विद्यार्थीच उद्याचा समाज आहे. म्हणूनच समाजाच्या विकासासाठी शिक्षणामध्ये मूल्य व अध्यात्मिकतेचा समावेश करण्याची आवश्यकता आहे.
सांगली जिल्ह्यात आटपाडी तालुक्यातील तळेवाडी या छोट्याशा खेड्यात एका निरक्षर व गरीब कुटुंबात जन्मलेल्या भगवानभाईंना लिहिण्या- वाचण्यासाठी वही, पुस्तकेसुध्दा  मिळत नव्हती. वयाच्या 11 वर्षी त्यांनी शाळेत जायला सुरूवात केली. ते जुन्या रद्दीमधील  वह्यांची कोरी पाने व शाईने लिहिलेली पाने पाण्याने धुवून, सुकवून त्या पानांचा उपयोग लिहिण्यासाठी करीत. अशाच रद्दीमध्ये त्यांना ब्रह्माकुमारी संस्थेच्या एका पुस्तकाची काही पाने मिळाली. या रद्दीतील पानानींच त्यांचे जीवन बदलून गेले. त्या पानावर असलेल्या पत्त्यावरून ते ब्रह्माकुमारीसंस्थेमध्ये पोहचले व तेथील ईश्वरीय ज्ञान व राजयोगाचा अभ्यास करून आपले मनोबल वाढविले व त्या फलस्वरूप माऊंट अबू येथील आपले सेवाकार्य सांभाळून आजपर्यंत त्यांनी 5000 शाळा, महाविद्यालये व 800 कारागृहात जाऊन या सेवेचे एक रेकॉर्ड प्रस्थापित केले.
वर्तमानसमयी ब्रह्माकुमार भगवानभाई ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालयाच्या शांतीवन या मुख्यालयातील विशाल किचनमध्ये सेवारत असून अनेक मासिकातून तसेच वृत्तपत्रातून आतापर्यंत 2000 हून अधिक लेख लिहिले आहेत. त्यांना मिळालेल्या या सन्मानाबद्दल सातारा सेवाकेंद्राच्या संचालिका ब्रह्माकुमारी रूक्मिणी बहेनजी व शिक्षणाधिकारी (माध्य.) मकरंद गोंधळी यांनी त्यांचे अभिनंदन केले.                            

सातारा, दि. 15 : प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालयाचे मुख्यालय असलेल्या माऊंट अबू येथील ब्रह्माकुमार भगवानभाईंनी केलेल्या उल्लेखनीय कामगिरीची दखल घेवून त्यांच्या कार्याची "इंडिया बुक ऑफ रेकार्ड' मध्ये नुकतीच नोंद झाली असून दिल्ली येथे एका विशेष समारंभामध्ये इंडिया बुक ऑफ रेकार्डचे मुख्य संपादक विश्वरूपराय चौधरी यांच्या हस्ते त्यांना सन्मानित करण्यात आले.
भगवानभाईंनी आतापर्यंत भारतातील विविध प्रांतातील 5000 शाळा, महाविद्यालयांमध्ये जाऊन लाखो विद्यार्थ्यांना मूल्यनिष्ठ शिक्षणाद्वारे नैतिक व अध्यात्मिक विकासासाठी उद्‌बोधन केले आहे. 800 कारागृहांमध्ये जाऊन हजारो कैद्यांना गुन्हेगारी सोडून आपल्या जीवनामध्ये सद्‌भावना, मूल्य तसेच मानवतेला स्थापित करण्यासाठी प्रेरित केले आहे. या कार्याची नोंद घेवून त्यांची या पुरस्कारासाठी निवड करण्यात आली.
सत्कारानंतर प्रतिक्रिया व्यक्त करताना ब्र. कु.भगवानभाई म्हणाले,  समाजामधील भ्रष्टाचार, व्यसनाधिनता, गुन्हेगारी समाप्त करावयाची असेल तर त्यासाठी शिक्षणामध्ये परिवर्तनाची आवश्यकता आहे. शाळा/ महाविद्यालयांमधूनच समाजाच्या प्रत्येक क्षेत्रामध्ये व्यक्ती प्रवेश करते. आजचा विद्यार्थीच उद्याचा समाज आहे. म्हणूनच समाजाच्या विकासासाठी शिक्षणामध्ये मूल्य व अध्यात्मिकतेचा समावेश करण्याची आवश्यकता आहे.
सांगली जिल्ह्यात आटपाडी तालुक्यातील तळेवाडी या छोट्याशा खेड्यात एका निरक्षर व गरीब कुटुंबात जन्मलेल्या भगवानभाईंना लिहिण्या- वाचण्यासाठी वही, पुस्तकेसुध्दा  मिळत नव्हती. वयाच्या 11 वर्षी त्यांनी शाळेत जायला सुरूवात केली. ते जुन्या रद्दीमधील  वह्यांची कोरी पाने व शाईने लिहिलेली पाने पाण्याने धुवून, सुकवून त्या पानांचा उपयोग लिहिण्यासाठी करीत. अशाच रद्दीमध्ये त्यांना ब्रह्माकुमारी संस्थेच्या एका पुस्तकाची काही पाने मिळाली. या रद्दीतील पानानींच त्यांचे जीवन बदलून गेले. त्या पानावर असलेल्या पत्त्यावरून ते ब्रह्माकुमारीसंस्थेमध्ये पोहचले व तेथील ईश्वरीय ज्ञान व राजयोगाचा अभ्यास करून आपले मनोबल वाढविले व त्या फलस्वरूप माऊंट अबू येथील आपले सेवाकार्य सांभाळून आजपर्यंत त्यांनी 5000 शाळा, महाविद्यालये व 800 कारागृहात जाऊन या सेवेचे एक रेकॉर्ड प्रस्थापित केले.
वर्तमानसमयी ब्रह्माकुमार भगवानभाई ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालयाच्या शांतीवन या मुख्यालयातील विशाल किचनमध्ये सेवारत असून अनेक मासिकातून तसेच वृत्तपत्रातून आतापर्यंत 2000 हून अधिक लेख लिहिले आहेत. त्यांना मिळालेल्या या सन्मानाबद्दल सातारा सेवाकेंद्राच्या संचालिका ब्रह्माकुमारी रूक्मिणी बहेनजी व शिक्षणाधिकारी (माध्य.) मकरंद गोंधळी यांनी त्यांचे अभिनंदन केले.