Thursday, 26 May 2011

``मौ साधक कौन हँू ? `` - इसका परिचय प्राप्त करना राजयोगी के लिए परम आवश्यक है. ``आप कौन है ? `` - यह प्रश्न जितना ही सरल है उतना ही गहन है. ``आप कौन है ?`` प्रश्न पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक परिचय देगा.

राजयोग की साधना करे वाला ``मौ साधक कौन हँू ? `` - इसका परिचय प्राप्त करना राजयोगी के लिए परम आवश्यक है. ``आप कौन है ? `` - यह प्रश्न जितना ही सरल है उतना ही गहन है. ``आप कौन है ?`` प्रश्न पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक परिचय देगा. ह उत्तर में अपना नाम, लिंग, गुण, व्यवसाय बतलाता है तो यह निश्चित है कि किसी भी व्यवसाय को प्रारम्भ करने से पूर्व उस व्यक्ति का अस्तित्व होता है और व्यवसाय को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है. तो केवल व्यवसाय वर्णन करना पूर्ण परिचय नहीं हुआ. इसी प्रकार सभी शारीरिक परिचय विनाशी है. क्योंकि वे विनाशी देह के साथ सम्बधित हैं. परन्तु जब यह कहा जाता है कि, ``मौ परमात्मा के घर से आया हूँ और मुझे परमात्मा के घर जाना है`` तो यह कहने वाला ``मौ`` कौन हँू ? शरीर न परमात्मा के घर से आया है, न परमात्मा के घर जायेगा. शरीर का पिता होते हुए भी शरीर के अन्दर वह कौन-सी सत्ता है जो परमात्मा को अपना पिता कहती है ?


राजयोग की साधना करे वाला ``मौ साधक कौन हँू ? `` - इसका परिचय प्राप्त करना राजयोगी के लिए परम आवश्यक है. ``आप कौन है ? `` - यह प्रश्न जितना ही सरल है उतना ही गहन है. ``आप कौन है ?`` प्रश्न पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति अपना शारीरिक परिचय देगा. ह उत्तर में अपना नाम, लिंग, गुण, व्यवसाय बतलाता है तो यह निश्चित है कि किसी भी व्यवसाय को प्रारम्भ करने से पूर्व उस व्यक्ति का अस्तित्व होता है और व्यवसाय को छोड़ देने के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है. तो केवल व्यवसाय वर्णन करना पूर्ण परिचय नहीं हुआ. इसी प्रकार सभी शारीरिक परिचय विनाशी है. क्योंकि वे विनाशी देह के साथ सम्बधित हैं. परन्तु जब यह कहा जाता है कि, ``मौ परमात्मा के घर से आया हूँ और मुझे परमात्मा के घर जाना है`` तो यह कहने वाला ``मौ`` कौन हँू ? शरीर न परमात्मा के घर से आया है, न परमात्मा के घर जायेगा. शरीर का पिता होते हुए भी शरीर के अन्दर वह कौन-सी सत्ता है जो परमात्मा को अपना पिता कहती है ?

जब हम कहते है कि ``हमे शान्ति चाहिए``, तो शान्ति की इच्छा रखने वाला मैं कौन हूँ ? अगर केवल शरीर को शान्ति चाहिए तो किसी की मृत्यु के बाद जब शरीर शान्त हो जाता है तब फिर आत्मा की शान्ति की कामना नहीं की जानी चाहिए. किसी की मृत्यु हो जाने पर अगर कोई रोता है तो उसे इसलिए रोका जाता है कि कहीं रोने से आत्मा अशान्त न हो जाए. परमात्मा से प्रार्थना में भी यही कहते है कि - ``हे प्रभु ! इनकी आत्मा को शान्ति देना `` मृतक शरीर के आगे दीपक जगाकर रखते हैं ताकि आत्मा को सही दिशा प्राप्त हो.

इससे स्पष्ट है कि ``मैं`` कहने वाली आत्मा है, न कि शरीर मैं आत्मा साधक हँू, और शरीर मेरा एक साधन है. शरीर और आत्मा के अन्तर का मूल भेद ``मौ`` और ``मेरा`` - इन दो सर्वनामों के प्रयोग से स्पष्ट किया जा सकता है, तो ``आप कौन है ?`` का सही उत्तर यही है कि ``मौ आत्मा हूँ और यह मेरा शरीर है.`` ``मौ`` शब्द आत्मा की ओर इंगित करता है और ``मेरा`` शब्द आत्मा के साधन शरीर की ओर संकेत करता है, इसी प्रकार शरीर के विभिनन अंगो के लिए भी ``मेरा`` शब्द का प्रयोग किया जाता है, न कि ``मौ`` शब्द, जौसे कि मेरा, मुख, मेरे हाथ, मेरी आँखे आदि, समूचे शरीर के लिए - मेरा शरीर.

आत्मा तथा शरीर का सम्बन्ध ड्राईवर और मोटर के समान है. जौसे मोटर में बौठकर ड्राईवर उसे चलाता है और अलग अस्तित्व रखता है, वौसे आत्मा भी शरीर में रहकर उसका संचालन करती है और शरीर से अलग अस्तित्व रखती है जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध हो तब ही आत्मा जीव-आत्मा कहलाती है, तब ही ``मनुष्य`` शब्द कहने में आता है. आत्मा की देह की इन्द्रियों द्वारा कर्म करती है और उन्हीं कर्मो का फल सुख या दु:ख रुप में देह की इन्द्रियों द्वारा ही भोगती है इसलिए तो कहावत है कि ``आत्मा अपना ही मित्र है और अपना ही शत्रु है`` आत्मा ही जीवात्मा के रुप में कर्मो के लेप - विक्षेप में आती है तब ही ``महात्मा``, ``पुण्यात्मा``, की संज्ञा का प्रयोग आत्मा के लिए होता है, न कि शरीर के लिए. शरीर का महत्व वा मूल्य तब तक है जब तक उसमें आत्मा का निवास है. जिस प्रकार बीज का महत्व ही तब है जब उसको धरती, जल, वायु या तेज दिया जाए, इसी प्रकार आत्मा का भी महत्व तभी है अथवा वह कर्म तब कर सकती है जब उसे शरीर प्रापत है. तो आत्मा और शरीर इस संसार रुपी कर्मक्षेत्र में एक दुसरें के लिए परम आवश्यक हैं, लेकिन अनुभव करने वाली आत्मा है और शरीर उसका साधन या माध्यम है.

राजयोग का एकाग्रता से अभ्यास करे और जीवन को अन्तर्मुखी बनाकर, ताये गये नियमों का पालन करे तो उस जीवन मे अत्याधिक परमानन्द व जीवन के सच्चे सुख की अनुभूति होगी.

`योग`` शब्द ही - मनुष्य को अलौकिकता की ओर प्रेरित करता है. आज विश्व में योग विद्या के अभाव के कारण ही बेचौनी, परेशानी व तनाव का प्रकोप बढ़ता जा रहा है. योग अत्यन्त प्राचीन प्रणाली है. भारत के प्राचीन योग की ख्याति समस्त विश्व तक पहुँची हुई है. इसलिए विश्व के अनेक प्राणियों में योगाभ्यास सीखने की आकांक्षा है

योग की प्रख्याति के कारण समयोपरान्त इसके विविध स्वरुप सामने आये. यद्यपि योग अभ्यास की विधि एक ही है, परन्तु आत्मा और परमात्मा की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के कारण मनुष्यों ने अनेक प्रकार के योगांे का प्रतिपादन किया. धीरे-धीरे योग अभ्यास मनुष्य के लिए कठिन होता गया और योग का स्थान हटयोग व योग आसनों ने लिया तथा आजकल मनुष्य योग को केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही हितकर मानने लगा. यह सत्य उससे विस्मृत हो गया कि योग पूर्णतया आध्यात्मिक विद्या है. योग विद्या लोप होने के साथ-साथ संसार से सत्य धर्म भी लोप होता गया और धर्म की ग्लानि की स्थिती आ पहुँची. संसार से वास्तविक धर्म व अध्यात्म समाप्त हो गया और मानवता का भविष्य पूर्णतया अंधकार मे नज़र आने लगा. हम सब कलियुग के अन्तिम चरण में पहॅुंच गये. तब योगेश्वर, ज्ञान-सागर परमात्मा ने स्वयं प्रजापिता ब्रह्मा के मुखारविन्द द्वारा सत्य व सम्पूर्ण योग सिखाया जिसे राजयोग की संज्ञा दी गई क्योंकि इससे मनुष्यात्मा पहले अपनी कर्मेन्द्रियों का राजा बन जाती है फिर उसे स्वर्ग का सम्पूर्ण सतोप्रधान राज्य प्राप्त हो जाता है. परमात्मा द्वारा सिखाये गये उस सहज राजयोग का ही इस पुस्तिका में उल्लेख है.

परमात्मा ने अति सहज योग सिखाया इसलिए इस योग में मन्त्र, प्राणायाम व आसनों की आवश्यकता नहीं पड़ती. इस योग का अभ्यास विश्व का हर प्राणी कर सकता है. यह राजयोग वास्त में मनुष्य को कर्म-कुशल बनाता है और कलियुग के इस दूषित वातावरण मे सन्तुलित जीवन जीने की कला भी सिखाता है. इस राजयोग के अभ्यास से अन्तरात्मा की गुप्त शक्तियाँ जागृत हो जाती है ओर उससे अनेक गुणांे, कलाओं व विशेषताओं का आविर्भाव होने लगता है. यह राजयोग मनुष्य के कुशल प्रशासन की कला भी सिखाता है और मन में बौठे विकारों के कीटाणुओं को नष्ट करने में सक्षम भी बनाता है. अगर जिज्ञासु इस राजयोग का एकाग्रता से अभ्यास करे और जीवन को अन्तर्मुखी बनाकर, ताये गये नियमों का पालन करे तो उस जीवन मे अत्याधिक परमानन्द व जीवन के सच्चे सुख की अनुभूति होगी.

अन्त में हम आशा करते है कि इस योग के अभ्यास से मनुष्यात्माएं अपने परमपिता से मिलन का अनुभव करेंगी और अभ्यास द्वारा इस योगाग्नि में अपने जन्म-जन्म के पापों को नष्ट करके एक स्वच्छ व निर्विकारी जीवन बनायेंगी तथा अन्त में कर्मातीत स्थिती को प्राप्त करेंगी.
“परमात्‍मा एक है, वह निराकार एवं अनादि है। वे विश्‍व की सर्वशक्तिमान
सत्‍ता है और ज्ञान के सागर है।”
इस मूलभूत सिद्धांत का पालन करते हुए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय
विश्‍व विद्यालय इन दिनों विश्‍व भर में धर्म को नए मानदंडों पर परिभाषित
कर रहा है। जीवन की दौड़-धूप से थक चुके मनुष्‍य आज शांति की तलाश में इस
संस्‍था की ओर प्रवृत्‍त हो रहे हैं।
यह कोई नया धर्म नहीं बल्कि विश्‍व में व्‍याप्‍त धर्मों के सार को
आत्‍मसात कर उन्‍हें मानव कल्‍याण की दिशा में उपयोग करने वाली एक
संस्‍था है। जिसकी विश्‍व के 135 देशों में 4,700 से अधिक शाखाएँ हैं। इन
शाखाओं में 9 लाख विद्यार्थी प्रतिदिन नैतिक और आध्‍यात्मिक शिक्षा ग्रहण
करते हैं।--
संस्‍था की स्‍थापना दादा लेखराज ने की, जिन्‍हें आज हम प्रजापिता
ब्रह्मा के नाम से जानते हैं।
दादा लेखराज अविभाजित भारत में हीरों के व्‍यापारी थे। वे बाल्‍यकाल से
ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। 60 वर्ष की आयु में उन्‍हें परमात्‍मा के
सत्‍यस्‍वरूप को पहचानने की दिव्‍य अनुभूति हुई। उन्‍हें ईश्‍वर की
सर्वोच्‍च सत्‍ता के प्रति खिंचाव महसूस हुआ। इसी काल में उन्‍हें
ज्‍योति स्‍वरूप निराकार परमपिता शिव का साक्षात्‍कार हुआ। इसके बाद
धीरे-धीरे उनका मन मानव कल्‍याण की ओर प्रवृत्‍त होने लगा।
उन्‍हें सांसारिक बंधनों से मुक्‍त होने और परमात्‍मा का मानवरूपी
माध्‍यम बनने का निर्देश प्राप्‍त हुआ। उसी की प्रेरणा के फलस्‍वरूप सन्
1936 में उन्‍होंने इस विराट संगठन की छोटी-सी बुनियाद रखी। सन् 1937 में
आध्‍यात्मिक ज्ञान और राजयोग की शिक्षा अनेकों तक पहुँचाने के लिए इसने
एक संस्‍था का रूप धारण किया।
इस संस्‍था की स्‍थापना के लिए दादा लेखराज ने अपना विशाल कारोबार
कलकत्‍ता में अपने साझेदार को सौंप दिया। फिर वे अपने जन्‍मस्‍थान
हैदराबाद सिंध (वर्तमान पाकिस्‍तान) में लौट आए। यहाँ पर उन्‍होंने अपनी
सारी चल-अचल संपत्ति इस संस्‍था के नाम कर दी। प्रारंभ में इस संस्‍था
में केवल महिलाएँ ही थी।
बाद में दादा लेखराज को ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम दिया गया। जो लोग
आध्‍या‍त्मिक शांति को पाने के लिए ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ द्वारा उच्‍चारित
सिद्धांतो पर चले, वे ब्रह्मकुमार और ब्रह्मकुमारी कहलाए तथा इस शैक्षणिक
संस्‍था को ‘प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍व विद्यालय’ नाम दिया
गया।
इस विश्‍वविद्यालय की शिक्षाओं (उपाधियों) को वैश्विक स्‍वीकृति और
अंतर्राष्‍ट्रीय मान्‍यता प्राप्‍त हुई है।

परमात्‍मा एक है, वह निराकार एवं अनादि है। वे विश्‍व की सर्वशक्तिमान सत्‍ता है और ज्ञान के सागर है।”

“परमात्‍मा एक है, वह निराकार एवं अनादि है। वे विश्‍व की सर्वशक्तिमान
सत्‍ता है और ज्ञान के सागर है।”
इस मूलभूत सिद्धांत का पालन करते हुए प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय
विश्‍व विद्यालय इन दिनों विश्‍व भर में धर्म को नए मानदंडों पर परिभाषित
कर रहा है। जीवन की दौड़-धूप से थक चुके मनुष्‍य आज शांति की तलाश में इस
संस्‍था की ओर प्रवृत्‍त हो रहे हैं।
यह कोई नया धर्म नहीं बल्कि विश्‍व में व्‍याप्‍त धर्मों के सार को
आत्‍मसात कर उन्‍हें मानव कल्‍याण की दिशा में उपयोग करने वाली एक
संस्‍था है। जिसकी विश्‍व के 135 देशों में 4,700 से अधिक शाखाएँ हैं। इन
शाखाओं में 9 लाख विद्यार्थी प्रतिदिन नैतिक और आध्‍यात्मिक शिक्षा ग्रहण
करते हैं।--
संस्‍था की स्‍थापना दादा लेखराज ने की, जिन्‍हें आज हम प्रजापिता
ब्रह्मा के नाम से जानते हैं।
दादा लेखराज अविभाजित भारत में हीरों के व्‍यापारी थे। वे बाल्‍यकाल से
ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। 60 वर्ष की आयु में उन्‍हें परमात्‍मा के
सत्‍यस्‍वरूप को पहचानने की दिव्‍य अनुभूति हुई। उन्‍हें ईश्‍वर की
सर्वोच्‍च सत्‍ता के प्रति खिंचाव महसूस हुआ। इसी काल में उन्‍हें
ज्‍योति स्‍वरूप निराकार परमपिता शिव का साक्षात्‍कार हुआ। इसके बाद
धीरे-धीरे उनका मन मानव कल्‍याण की ओर प्रवृत्‍त होने लगा।
उन्‍हें सांसारिक बंधनों से मुक्‍त होने और परमात्‍मा का मानवरूपी
माध्‍यम बनने का निर्देश प्राप्‍त हुआ। उसी की प्रेरणा के फलस्‍वरूप सन्
1936 में उन्‍होंने इस विराट संगठन की छोटी-सी बुनियाद रखी। सन् 1937 में
आध्‍यात्मिक ज्ञान और राजयोग की शिक्षा अनेकों तक पहुँचाने के लिए इसने
एक संस्‍था का रूप धारण किया।
इस संस्‍था की स्‍थापना के लिए दादा लेखराज ने अपना विशाल कारोबार
कलकत्‍ता में अपने साझेदार को सौंप दिया। फिर वे अपने जन्‍मस्‍थान
हैदराबाद सिंध (वर्तमान पाकिस्‍तान) में लौट आए। यहाँ पर उन्‍होंने अपनी
सारी चल-अचल संपत्ति इस संस्‍था के नाम कर दी। प्रारंभ में इस संस्‍था
में केवल महिलाएँ ही थी।
बाद में दादा लेखराज को ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम दिया गया। जो लोग
आध्‍या‍त्मिक शांति को पाने के लिए ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ द्वारा उच्‍चारित
सिद्धांतो पर चले, वे ब्रह्मकुमार और ब्रह्मकुमारी कहलाए तथा इस शैक्षणिक
संस्‍था को ‘प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍व विद्यालय’ नाम दिया
गया।
इस विश्‍वविद्यालय की शिक्षाओं (उपाधियों) को वैश्विक स्‍वीकृति और
अंतर्राष्‍ट्रीय मान्‍यता प्राप्‍त हुई है।

Saturday, 21 May 2011

Knowing God The Supreme Father of all Souls

Knowing God

Knowing God


Knowing the God In this world, many beliefs exist about God. As a result, people understand God in their own way and often in their own imagination. But what is required is the understanding God as He is, what He is and how He is. The correct understanding about God has to be given by God Himself!

There are some who don’t believe in the existence of God, often the reason being His existence cannot be proved like that of human beings. But because we cannot see God with the gross eyes, it doesn’t mean that God doesn’t exist. Just like wind, which cannot be seen but can be very much felt, it is possible to experience God’s presence through Godly knowledge and meditation.

Who is God and what is His form and name?
We shall now try to understand who God or the Supreme Soul is. The term ‘Supreme Soul’ means He is supreme among all souls. It implies that, He is also ‘a soul’, though He is the Highest of all. He is above birth and death. God is the Supreme Father-Mother, Supreme teacher and Supreme Preceptor to all the human beings and He himself has no father-mother, teacher and preceptor.

God is a subtle, infinitesimal point of Light. He is not visible to the naked eye but it is very much possible to experience His presence and proximity in meditation. He is incorporeal in the sense that he does not have a body of his own. He is not a human being nor does He have a human form. He is immune to pleasure and pain unlike human beings.

Names are a means of identification of human beings after they are born. They do not speak of qualities and actions of the person; they are simply proper nouns and are not attributive names. But the name of the supreme soul or God is based on His qualities and actions. His self-revealed name is ‘Shiva’. ‘Shiva’ means doer of good or benefactor. God does good to all and therefore He is called Shiva. All souls ask for salvation and beatitude i.e. peace and happiness from Him. People remember Him by many other expressive names.


His Virtues
God is the Supreme Father of all. He is called the creator. He is oceanic in his virtues – the ocean of peace, the ocean of love, the ocean of bliss, the ocean of knowledge, the ocean of happiness, the ocean of mercy, etc. He is the truth. He is the Almighty and Authority. He is reputed to be the preserver or sustainer of virtues and the destroyer of all evils. He is also the liberator, the guide, and the bestower of salvation, therefore the sadguru. He dispels sorrow, bestows joy. God is perfect in all ways and absolutely detached and loving. He is very benevolent and helpful and so souls ask all things of him. When in sorrow and losing all hope, souls turn to him intuitively and inevitably.

Many are the religions and paths that souls take in their quest for reaching God. Many wars have been waged in his name. However, he does not exclusively belong to anyone. He belongs to everyone equally.

The Supreme Father of all Souls
God is the father of all souls in this world. It is observed that all religions have images, idols or memorials bearing one name or another to represent the form of Light that God is. All over India, the images of the form that Shiva has is found installed; these images are without any human form, in the form of linga, which is the symbol of an incorporeal Being. At Mecca, in the holy place of Kaaba, a stone image with oval form is called “Sang-e-Aswad”. The devotees who go for Haj kiss this holy stone. Jesus Christ said, “God is Light”. Guru Nanak, the founder of Sikhism also sang the praise of Him who is ‘All-Light’ ( ek Omkar) and is incorporeal. In olden days, the Jews held a stone of this shape in their hands while taking a solemn oath and it is believed that Moses had vision of this form of God when he saw a flame behind the bush. The Zoroastrians worship God as fire. The ancient Egyptians worshipped the sun as god. A Buddhist sect in Japan focuses the mind on a small oval shape. They call it Karni, the peace giver.

It seems therefore that human beings, without realizing, have all been worshipping and trying to discover the same God. There is only one God and His form is a point of light. He is called by different names in different religions.

The Divine Abode of God
Where does God live? Is there somewhere one can go to see Him, to be with Him? God is a subtle point of light, and He does not pervade the physical universe. Nor does he live in the heart of any human being or in any matter. Neither is He omnipresent; nor is He having a human form. His home is the incorporeal world, an infinite expanse of golden-red light, which is beyond this physical world we live. It is the original abode of all souls as well. The incorporeal world is known as Paramdham or Brahmlok. Knowing where the Supreme Father is, we can establish connection with Him through thoughts during meditation.


The Divine Descent of God
God descends into this world when it is under the spell of extreme darkness of ignorance, unrighteousness, moral turpitude, spiritual lassitude and religious decrepitude. This is described in scriptures as “Dharma Glani”. Looking at the state of affairs today, it should not be difficult for us to conclude that the time the world is undergoing at present is indeed the Dharma Glani. This is the period of darkness when sins and crimes of all kinds usually take place; when man gropes around for want of clear vision. It is at this time that God intervenes in the affairs of mankind. The divine intervention takes place at the darkest hour of human history when the human soul is groping in the darkness of ignorance about the self, the creator and the creation; when the souls are blinded by the vices of lust, arrogance, anger, greed and attachment.

It is in this time that God descends in the body of an ordinary man to reveal the Godly Knowledge, which paves way to victory over vices and cultivate divine qualities in life. This enables human beings to transform into divine beings again.

Human Tree It is an indisputable fact that religion has an important influence on human mind. Along with the religion, the race, the language


The Human Tree

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Human Tree It is an indisputable fact that religion has an important influence on human mind. Along with the religion, the race, the language, the nationality, the culture, the ancestry with which a person identifies himself or herself has got a great bearing on his/her personality, beliefs, outlooks, attitude, consciousness and thinking. These are often the reason for so many conflicts in this world. So it is necessary to understand the original religion and culture of the mankind.

In order to elucidate the growth of this world and to illustrate the world developments, this world is compared with a tree which may be called ‘the Geneological Tree of mankind’. It is also known as kalpa tree because it depicts the history of the whole kalpa (one full cycle of all eras), the beginning the mid-period and the end of all the religio-political dynasties of the world.

In the beginning, depicted by the trunk, there was only one religion, which is the religion of the deities, and there was only one dynasty, called the sun dynasty. There was the deity-sovereignty, which set in vogue all righteous traditions and customs. The masses were, like their rulers, viceless and possessed divine qualities. Because they did good actions, even the nature was perfectly under their control. There was no fury of nature, neither ill-health nor want of money or food. All the elements were clean and excellent and therefore were instruments of happiness. Since there was complete purity, peace ad prosperity in that Age, kings and queens and their righteous subjects are shown with a halo of light around them. They were called deities because they were naturally holy, habitually righteous and instinctively spiritual and viceless. There was such great mutual regard and love in those days that it is said of the age in which a lion and a goat together drank from the same stream. There was unlimited wealth. Since people in that Age led viceless lives, they lived long and there was no case of premature death. They willingly gave up the body when they had reached old age. In other words, death never laid its hand on them.

In Golden age the souls were complete in all respects. In silver age, there was a slight decline in divine qualities. But even then there was sovereignty of complete peace and happiness.

Copper age follows the Silver Age. By this time, the souls, who had transmigrated through several lives, become body-conscious. The vices like lust, anger, greed, attachment and ego cast their shadows on them. And they had thus fallen from the state of purity and worthiness and become vicious and unworthy. As they forget their true selves and broke with purity, natural laws came to be violated. Even nature deviated from her usual course, having thus begun to harm them, even though slightly. It is in this age that various religions were established. A good many faiths began appearing like branches coming forth from the World-Tree. Abraham founded Islam; Buddhism was founded by Budha; Jesus Christ founded Christiniaty; Shankaracharya established the class of recluses and hermits; Mohammed Prophet established the Muslim religion. The previous deity religion came to be known as Hindu religion because they lost their deity-hood or divinity in them. The population also increased considerably. Whereas in the beginning, everything was one, now there are many religions, many kingdoms, languages, cultures and dynasties. Thus grew mutual strife, divisions and disunity and this state of affairs continued.

In the Iron Age that follows the Copper-Age, problems, difference of views and disputes begin to increase. The souls in this age are over-powered by vices and darkness of ignorance. They become vicious and impious. There is quite a crop of dissensions due to religious, communal and sectarian difference. Women are treated with utter contempt. Nature becomes instrumental in causing distress to man. Disease, grief, old age, premature death, death by accident, etc afflicted mankind.

When all the religions reach their lowest level, and all people, men and women become diabolic, there is misery and uproar. This is the time of wickedness and irreligion. People are given to sensual pleasures; they acquire bad qualities, ready to cause bloodshed on the score of differences in languages, views, politics, faiths, castes and states. Fighting among the nations brings about a great destruction of the world. Instead of behaving like brothers, people look upon one another as so many different beings and, therefore, they deal with each other as enemies. Being guided wholly by the feelings of nepotism, unrighteousness, lawlessness, selfishness, attachment, adulteration and bribery they desire to lay their hands on others’ possessions by any means. People discard all the feelings of mutual love and fight like demons.


What will happen next?

The world will not go on like this forever. Somebody has to put an end to all these evils. Otherwise the state of the world will be incomprehensible. This task is beyond the reach of any human being and only one Almighty God can establish lasting peace on earth. Incorporeal God Shiva descends in the body of an ordinary person, names him Prajapita Brahma, and through him, gives the Godly Knowledge and teaches the easy Raja Yoga. He shows the path by which anyone can become completely viceless and most righteous. In this way, God purifies the human beings of the old, impious world and transmutes them into pious ones, creating the Golden Age again.

The Rise and Fall of Humans

The Rise and Fall of Humans

The Rise and Fall of Humans


Rise and fall of Human We will understand this lesson with the help of the adjoiningpicture. It is a wonderful story of how the souls, who once were deities became the devotees and very ordinary human beings. It also explains how they lost the divine virtues, spiritual and moral values and developed devilish tendencies. The illustration shows that originally, human souls had complete purity, peace and prosperity and that they became defiled and peaceless later. Now it is time to again inculcate those lost virtues.

First of all is shown the Golden Age or the Satyuga, which is completely righteous. Shri Lakshmi and Shri Narayana and their dynasty ruled the world free from disease, sorrow, worry or vice. The people then had truly virtuous nature and outlook. During this period of 1250 years, the average age was 150 years. In this epoch, the people are most elevated, completely viceless and are invested with all good qualities and live under Divine Law. These people are considered to be class of deities.

Next comes Silver Age. In this epoch of 1250 years, average age of a person varies from 100 to 125 years. All are happy in this period as well. They have the rank of what are called Kshatriyas because they are not as pure as their predecessors – the deities.

Then in the Copper Age, they become body-conscious and are led to vices. So they have a fall, from a deity’s position which is worship-worthy exalted position to be just supplicant men or poor worshippers. Their rank is of middle class or Rajopradhana type. Their position is that of ‘Vaishyas’ –mediocre.

After this comes the Iron Age (Kaliyuga). The picture represents how in this epoch, Maya which symbolizes the vices, has grown in power over the world. In Iron Age, tamoguna, the basest form in man – is pre-dominant. All the persons are ranked as Shudras. In this epoch of 1250 years, there are 42 births. In this era, we see disputes and strifes, based on want of respect for authority and differences in ideology, religion, states and languages. People do not look upon one another as spiritual brothers and are thus turned away from God, who is the Supreme Father.

At present, we are in the Confluence Age – the confluence of the fag end of the Kaliyuga and the dawn of Satyuga or the Golden Age. This is the time to receive Divine Knowledge from God and practise spiritual discipline and easy Raja Yoga and re-acquire deity status. When the Iron Age is very near it’s end, unrighteousness is eliminated to make room for Righteousness (Dharma) and the deity-world. With this comes the Golden Age.

The Cycle of Time

The Cycle of Time

The Cycle of Time


Cyle of Time In this lesson, we learn about the beginning, the middle and the end of one complete ‘time cycle’ of this world. More than anything else, we will understand the great significance of the period we are undergoing at present.

The world has been in existence since eternity and it will continue to be eternal. The world was neither created anytime before nor will it get destroyed later, because matter can neither be created nor destroyed, it only undergoes transformation from one form to another. Similarly this world also undergoes changes in its characteristics, but as such the world was not created out of nothing nor will there be a total annihilation.

The cycle of time is best understood with the help of the picture of the world drama wheel. It illustrates the “flow” of time. In the middle of it is the Fylfot ( Swastika ) which divides the Time into four equal parts. The Swastika is considered to be very auspicious.

In the first part of this Wheel of Time, marked by Swastika is shown Golden Age. Here the arm of the Swastika is pointing towards right because the right arm symbolizes what is good or what brings about goodness. In these early times, when the cycle started, people of the diety religion ( Sanatan Dharma) were possessed of divine qualities and nature and they enjoyed complete purity, 100% peace and complete prosperity.

Then came the Silver Age. In this era too, people were possessed of purity, peace and prosperity to a very high degree. But the degree of their divine qualities had decreased a little. They were two degrees less divine than the people of the Golden Age who were divine to the extent of 16 degrees. Therefore the arm of Swastika that indicates this epoch is bent downwards because souls in this era had come down from the state of super-righteousness to what is just righteous.

Next came Copper Age.After having experienced beatitude and fruition for many a life, turned ti the path of vices or unrighteousness. This is why the arm is reversed because the left hand symbolizes what is impure and auspicious. People then were second-grade by their nature, qualities and actions. Mankind is now divided on various religions; strifes and disputes started to appear and the five vices brought disquiet and sorrow in homes.

Steadily, unrighteous doings, ie the actions done under the sway of one or the other of these five vices, led the world to more and more impurity and sufferings and the world came under the yoke of Iron Age ( Kaliyuga). Strifes, wars, bellicosity and the resulting peacelessness increased rapidly in frequency and intensity in this era. Therefore the fourth of Swastika is shown raising itself up to indicate the rise in conflicts, clashes and calamities. Then, a stage comes when ignorance, lassitude, stupor, moral turpitude and sin become dominant. People become devilish by nature and religion becomes utterly degenerate.


The Significance of the present period
At present, we are undergoing through a critical phase in the history of mankind. This is the period of the confluence of the ending phase of the Iron Age and the starting phase of the Golden Age. This is the most important of all epochs, called the Confluence Age, when God, the Highest Being, descends in this world to meet the human beings, His beloved children and gives the most precious boons of Redemption and Beatitude.

Through the Godly Knowledge and the easy Raj Yoga, God creates the Golden Age or new viceless order. The act of ‘creation’ does not mean constructing something out of nothing but it means the moral reconstruction of mankind or the re-establishment of the ancient most Deity Religion. The reader would be pleased to know or, perhaps, surprised to know that God Shiva, the Supreme Father of all, is indeed doing this great task of resurrection of mankind at present. The world will soon be free of all miseries and the paradise, which is full of peace and happiness, will be established again.


The Nature of the World Drama Cycle
The cycle of five epochs, comprising Golden-Age, Silver Age, Copper-Age and Iron Age and the confluence Age repeats exactly everytime after it has turned full wheel. During every cycle, the souls who are the actors on this world-drama stage will be the same. Each soul will act the same part in every cycle since, in the soul itself is indelibly ingrained the part it has played life after life in the previous cycle or that it has to repeat cycle after cycle. Just as in a tape record or a gramophone record, a whole song or drama is recorded and it repeats every time the record is played, even so, a soul’s role in this world drama is recorded in the soul itself which is only self-luminous, conscient point. The soul replays the part once every 5000 years because each one of the four eras of the world-drama being equal to 1250 years, the duration of one World Cycle is 5000 years.

Realising the Self Who am I? What am I? What is my real identity?

Realising the Self

Realising the Self

Realising the Self Sometime in the journey of life, some of the following questions might have crossed your mind. Even if they haven’t, they eventually will certainly occur !

* Who am I? What am I? What is my real identity?
* How do my thoughts and feelings interact with the body?
* How to make my mind powerful? Breaking the mysteries of mind;
* Understanding thoughts, how they come and go, how to regulate them
* Why do we come under emotions, feelings, tension and stress
* How does an individual develops behavioral patterns, traits etc;
how to transform them
* How to enjoy this precious life? How to lead a life of peace and bliss?

The first lesson is all about complete understanding of the self, which has remained a mystery that has eluded scientists, philosophers, great thinkers and many other intellectuals.

Soul and body

The human body is a complex pattern of physical energies. Atomic particles build together to form the organic structures and inorganic minerals, which perform the body’s chemical interactions, thus forming the basis of the hormonal and nervous control of the body. What we see as the old or young, ugly or beautiful, male or female, are also the differing levels of physical energies. However marvelous a machine the body may be, it is the presence of the non-physical conscious energy, the soul, which makes it function.

What Am I?

I am a living entity different from the body! Just as a person who speaks with the help of a telephone or listens to a call with the help of that instrument, has his entity different from that of the telephone – he himself being a living person who has the faculties or characteristics of feeling, thinking, willing and making effort. Similarly, the conscious entity in the body which uses the word “I” is different from the body which has eyes, ears, nose etc as it’s components. I am not the eyes, the ears or the mouth but I see with my eyes, speak through the mouth, hear with the ears and am their master. I am a soul (Atma), eternal and immortal. The body is mortal; I have got it to do actions and to experience the result of my actions. I am the doer and the one who experiences.

The soul is like a driver in-charge of the body, which serves as a carriage to the soul. The soul is a diamond, the body being the casket for it. When the soul leaves the body, the body is declared ‘dead’. Then people set about cremating it because, it’s valuable owner, the soul, has already left and the body is of no use. When the soul has relinquished the body, people say, “ the light (which is soul) has gone, that which lived in it has departed and the drama is over”

Faculties of a Soul

The soul is a living or a sentient being. It is said to be conscient or living because it can think and reflect; it can experience pleasure and pain, so also bliss and peace; it can bestir itself and make efforts and actions – good or bad. A soul has three faculties – mind, intellect and predispositions.

Mind is the thinking faculty of the soul. It is the mind that imagines, thinks and forms ideas. The thought process is the basis of all emotions, desires and sensations. It is through this faculty that, in an instant, thoughts can be projected to a distant place, past experiences and emotions can be relived or even the future can be anticipated. It is the mind that experiences the variations of moods. The mind is a faculty of the metaphysical soul, not be confused with the heart or the brain.

Intellect is used to assess thoughts. This is the faculty of understanding and decision-making which stands out as the most crucial faculty of the three. With the deepening and broadening of the intellect, clear understanding and the realization of the knowledge becomes natural, and the power to decide and reason becomes clear. It is the intellect which remembers, discriminates, judges and exercises its power in the form of will.

Predispositions (called Sanskaras in hindi) are the “impressions” or “subconsciousness” which is the record of all the soul’s past experiences and actions. Sanskaras can take the forms of habits, talents, emotional temperaments, personality traits, beliefs, values or instincts. Every action as an experience either creates a sanskar ( this is how a habit begins) or reinforces an old one. Whatever impression is etched in the soul remains within it, forming a complete archive of all the experiences that the soul has had. When we speak of defects, specialties or virtues, we are referring to the sanskaras. The sanskaras are the basis of the soul’s individuality.

Seat of the Soul

The soul is located in the middle of the forehead in between the two eyebrows. This is the seat of the soul. The brain is the “control-room”. Just as a driver controls the car using different parts of the mechanism seated at one place, the soul employs the brain to control the body. Brain is the machine by means of which the soul thinks, remembers, receives messages from or gives directions to the sense-organs. The brain is the meeting place of all nerves, which carry sensations from all parts of the body to brain which functions like a control-room and makes the body to work. It is in the brain that the soul, through the nerves, puts the body to work and experiences physical sensations, pleasure and pain or happiness and sorrow. But, the brain is separate from the soul, brain is a complex thing made of matter whereas the soul has the life-principal or consciousness.

Nature of Soul

A soul is a tiny, metaphysical, conscient point of spiritual light. There are a finite number of souls. Each soul is eternal. They were never created, and will never be destroyed. Each soul is unique. We are all souls, unique and different and remain so eternally. As such, souls are invisible to the naked eyes, but one can experience it’s presence. A soul has no gender.

The intrinsic nature of the soul is that of love, peace, happiness, truth, bliss, purity. Therefore, souls always desire for experiences of these
qualities. These are the qualities that naturally emerge when the soul is aware of itself, or in other words, is soul-conscious.
Body-Consciousness – the root cause of all evils in the world

A person is in body conscious when he/she identifies himself or herself with the physical body, ie when the thinking, feeling, actions and behaviors are with the awareness that he or she is a body. Being in body conscious is the root cause of all the evils in the world because the vices like lust, anger, greed, attachment and ego are all having their roots in body – consciousness

Soul - Consciousness – the key for a blissful life

When a person is in the state of awareness that “I am a Soul and not this physical body”, then he/she would be in soul consciousness. In other words, the person thinks, feels, acts, behaves, compares etc with the awareness that he or she is a soul, the master of the body. When in soul-consciousness, the original qualities of a soul naturally emerge. Then it is possible to experience lasting peace and bliss.

Karma Philosophy

There are times when thoughts of distress and tension raise their ugly head. There are situations when a person searches for right answers. Here are some typical examples – Why are we here? Why was I born here and he there? Why is she beautiful and I ugly? Why is so and so crippled for no apparent fault of theirs? Why does the egotistical bully who browbeats his business companions, fiddles his income tax returns and beats his wife, attain outstanding worldly success? Why does the timid, quiet little widow who has never said a harsh word to anyone, live in appalling conditions and die unwanted and uncared for? Why did he have to die? Why did he do that to me? Why is there so much suffering? Why this, why that?

The answers lie in one eternal truth - based on the Law of Karma or the Karma Philosophy – that no one can escape the result of his or her karma. Depending on the bad or good karma or action, one will suffer or enjoy, either in this or the next life. No one can escape the result of his or her karma. The law of Karma is inviolable. So everyone must act with a sense of responsibility. Ignorance of the law is no excuse. So we must acquire right knowledge of what is good and what is bad action. The morale of the story – I have to do right karma for my benefit; it is not for showing it to anyone outside.

Every human action has a moral aspect. If a person’s certain act is morally good, the person gets ultimately benefited. If, on the other hand, his acts are morally bad, he suffers. It would require a lot of space to express what is morally good and bad. But in one sentence, it may be said that, if a person acts under the influence of hatred, anger, lies, prejudice, greed, ego, partiality, lust and such other acts under the influence of body-consciousness, then his actions are bad or negative. These create disharmony and conflict and sufferings in the society.

On the other hand, if a person has a balanced judgment, stability of mind, peace of the spirit and acts with the feeling of love, justice, sympathy, humility and the such other actions in soul-consciousness, then his acts are good because such acts promote harmony, peace, unity and happy feelings.

The Power of Thought

The most powerful instrument that mankind possesses is thought power. Thoughts build our consciousness and shape our attitude. One needs to know how important thoughts are. Every human creation we see in this world is due to powerful thoughts in human minds. Thoughts shape our world. Thoughts are fertilized by knowledge. A person with a certain kind of knowledge usually creates thoughts in harmony with that knowledge. Knowledge gives wisdom; a person without knowledge is a person whose thoughts will be formed in ignorance.

Every action is preceded by thoughts. The quality of thoughts determines the quality of our karma. The karma in turn has good or bad effect on us. This again influences our thinking. So right thinking based on right knowledge is essential for leading a peaceful and contented life. Raja Yoga meditation helps us in doing the right thinking that leads to righteous actions. This also helps in remaining mentally strong amidst turbulent situations.

Friday, 20 May 2011

मन, बुद्धि और संस्कार

मन, बुद्धि और संस्कार

मन आत्मा की चिंतन शक्ति है जो कि विभिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न करती है- अच्छे, बुरे, व्यर्थ, साधारण, इत्यादि। कुछ विचार स्वैच्छिक होते हैं, और कुछ अनियंत्रित, जो कि पिछले जन्मों के कर्मों के हिसाब-किताब के कारण उत्पन्न होते हैं। कुछ विचार शब्दों तथा कर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं, जबकि कुछ विचार केवल विचार ही रह जाते हैं। विचार बीज की तरह होते हैं- शब्दों और कर्मों रूपी वृक्ष से कहीं अधिक शक्तिशाली। जब शरीर-रहित आत्माएं शांतिधाम या परमधाम में होती हैं तो वे विचार-शून्य होती हैं। ५००० वर्ष के मनुष्य सृष्टि चक्र में पहले दो युगों अर्थात् सतयुग और त्रेतायुग में देवतायें केवल संकल्पशक्ति का सकारात्मक रूप में उपयोग करते थे। इसके परिणामस्वरूप, अधिक ऊर्जा की बचत होती है, जिससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है, किन्तु जब हम देह अभिमानी बन जाते हैं, हम अपनी संकल्प शक्ति से अधिक शब्दों और कर्मों का उपयोग करते हैं, वह भी नकारात्मक रूप में। इससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का पतन होता है, और कलियुग के अंत तक यह पतन सबसे अधिक हो जाता है। निराकार भगवान शिव, जो कि जन्म-मरण के चक्र में नहीं आते, के इस पृथ्वी पर दिव्य अवतरण लेने पर ही हम अपने विचारों, वाणी और कर्मों पर नियंत्रण करना सीखते हैं, और पतित मनुष्यों से बदलकर गुणवान देवता बन जाते हैं। मन एक समुद्र या झील की भांति है, जो विभिन्न प्रकार की लहरें उत्पन्न करता है- कभी ऊंची, कभी नीची, और कभी कोई लहरें नहीं होती. केवल शांति होती है। मन की तुलना ब्रह्मा (स्थापनाकर्ता) से की जा सकती है।

बुद्धि आत्मा की निर्णय शक्ति है। कोई आत्मा सारे दिन या सारी रात में विभिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न कर सकती है, किन्तु केवल बुद्धि द्वारा निर्णय लिये जाने पर ही आत्मा उन विचारों को शब्दों या कर्मों में ढ़ालती है। सकारात्मक, नकारात्मक या व्यर्थ विचारों को उत्पन्न करना या केवल विचार-शून्य अवस्था में रहने का निर्णय भी बुद्धि द्वारा ही लिया जाता है। यह बुद्धि ही है जो कि ८४ जन्मों वाले ५००० वर्षीय मनुष्य सृष्टि चक्र के दौरान आत्मा की यात्रा का मार्ग निर्धारित करती है। बुद्धि उस जौहरी की तरह है, जो कि शुद्धता और मूल्य के लिए रत्नों और हीरों को परखता है। बुद्धि की तुलना शंकर (विनाशकर्ता) से की जा सकती है, जो कि पुरातन संस्कारों, विकारों और पुरातन सृष्टि का विनाश करके नई दुनिया की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

किये हुए अच्छे बुरे कर्मों का जो मन बुद्धि रूपी आत्मा के ऊपर प्रभाव पड़ता है उसको संस्कार शक्ति कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि बुद्धि अपने शरीर का उपयोग बारंबार परिश्रम करने के लिए करती है, तो आत्मा परिश्रमी व्यक्ति के संस्कार धारण कर लेती है। यदि बुद्धि बारंबार सोने और आराम करने का निर्णय लेती है और परिश्रम एवं कसरत से बचती है, तो आत्मा आलस्य का संस्कार धारण कर लेती है। अतः, यह आत्मा पर निर्भर करता है कि वह अच्छे या बुरे संस्कार धारण करे। आत्मा अपनी संकल्प तथा निर्णय शक्ति (अर्थात् मन तथा बुद्धि) के आधार पर जो भी संस्कार प्राप्त करती है, वो आत्मा में उसी प्रकार जमा हो जाते हैं, जिस प्रकार किसी कंम्पयूटर के सी.पी.यू में विभिन्न फाईल या फोल्डर जमा हो जाते हैं। ये संस्कार आत्मा के अगले जन्म में भी उसके साथ रहते हैं, और अगले जन्म में भी कुछ हद तक उसके विचारों, वाणी और कर्मों को प्रभावित करते हैं। किसी आत्मा के अंदर पिछले जन्म में हासिल किये गये बुरे संस्कार होने के बावजूद, वह अच्छी संगत, मार्गदर्शन, भोजन, वातावरण, इत्यादि के द्वारा इन संस्कारों को बदल सकती है। जब ५००० वर्ष के सृष्टि-चक्र के अंतिम जन्म में सभी आत्माओं के संस्कार लगभग पतित बन जाते हैं, तब परमात्मा शिव परमधाम से आकर किसी साधारण मनुष्य तन में अवतरित होते हैं, और सहज राजयोग द्वारा हमें अपने संस्कारों को बदलने की शिक्षा और शक्ति प्रदान करते हैं। आत्मा के संस्कारों की तुलना विष्णु (पालनकर्ता) से की जा सकती है।

बायो --डाटा (परिचय ) ब्रह्मा कुमार भगवान भाई आबू पर्वत

बायो --डाटा (परिचय )
ब्रह्मा कुमार भगवान भाई आबू पर्वत ब्रह्माकुमारी

नाम: राजयोगी ब्रह्मा कुमार भगवान भाई
ब्रह्माकुमारी शांतिवन में राजयोगा टीचर
मुख्यालय प्रजापिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विद्यालय विश्व आबू पर्वत राजस्तान में
रसोई विभाग में ब्रह्मा भोजन में सेवा
लेखक, विभिन्न मगैनेस और समाचार पत्रों में
शैक्षिक योग्यता: 10 वीं और आय .टी .आय .
जन्म तिथि: जून 1, 1965
सेवा स्थान: अबू रोड, शांतिवन
ज्ञान में : 1985
सेवा में समर्पित कब से 1987:
सेवा --- जैसे, ग्राम विकाश कई आध्यात्मिक अभियानों में ,
रैली, शिव सन्देश रथ यात्रा, मूल्य आधारित मीडिया अभियान, मूल्य आधारित शिक्षा
अभियान, युवा पद यात्रा, आदि भारत के विभिन्न प्रदेशों में, साथ ही में
नेपाल में भी
भाषण विभिन्न विषयों पर पर संबोधित किया है कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
(5000) स्कूल में नीतिक मूल्य बारे में स्कूलों और जेलों (800)
समाज सेवा पुनर्वास शिविर बाढ़ जैसे प्राकृतिक आपदाओं, भूकम्प आदि
कोर्स और प्रशिक्षण कार्यक्रम में विभिन्न क्लास लिया है
यह ईश्वरीय विश्वविद्यालय के एक बहुत अच्छे लेखक हैं. अपने लेख बहुत बार कई पत्रिकाओं में प्रकाशित कर रहे हैं
जैसे (हिंदी) ज्ञानामृत , विश्व नवीनीकरण (अंग्रेज़ी) के रूप में,
(मराठी) अमृत्कुम्भ , ज्ञान दर्पण (उडिया), ज्ञानामृत (गुजराती),
(तमिल) संगम्युगम , विश्व एनएवी (कनाडा) निर्माण, (तलगू ) ग्यानाम्रितम , आदि,
तनाव मुक्त जीवन, व्यसन से मुक्त जीवन अन्गेर्लेस जीवन, सकारात्मक सोच, योग की विधि, स्व प्रबंध नेतृत्व की कला,
व्यक्तित्व विकास, प्रबंधन आदि म के विषयों पर व्याख्यान देते है लोटरी क्लब, बार के रूप में विभिन्न स्थानों (परिसर) में व्याख्यान
एसोसिएशन, विश्वविद्यालय परिसर, रेलवे, कालेज परिसर, आईटीआई, आ



प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय शांतिवन
के बीके भगवान भाई की ओर से पांच हजार स्कूलों में हजारों बच्चों को
मूल्यनिष्ठ शिक्षा के जरिए नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए लगातार
पढाए जाने पर तथा आठ सौ जेलों में हजारों कैदियों को अपराधों को छोड़
अपने जीवन में सदभावना, मूल्य तथा मानवता को बढ़ावा देने के उददेश्य से
आयोजित किए गए हजारों कार्यक्रमों के जरिए संदेश देने के अथक प्रयास को
’इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड’ में दर्ज किया गया है। दिल्ली के कनाट प्लेस में
२२ अप्रैल को यह सर्टिफिकेट इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड के चीफ एडिटर विश्वरूप
राय चौधरी की ओर से एक समारोह में दिया गया।

शिव सर्वआत्माओं के परमपिता हैं

शिव सर्वआत्माओं के परमपिता हैं

परमपिता परमात्मा शिव का यही परिचय यदि सर्व मनुष्यात्माओं को दिया जाए
तो सभी सम्प्रदायों को एक सूत्र में बाँधा जा सकता है, क्योंकि परमात्मा
शिव का स्मृतिचि- शिवलिंग के रूप में सर्वत्र सर्वधर्मावलंबियों द्वारा
मान्य है। यद्यपि मुसलमान भाई मूर्ति पूजा नहीं करते हैं तथापिवे मक्का
में संग-ए-असवद नामक पत्थर को आदर से चूमते हैं। क्योंकि उनका यह दृढ़
विश्वास है कि यह भगवान का भेजा हुआ है। अतः यदि उन्हें यह मालूम पड़ जाए
कि खुदा अथवा भगवान शिव एक ही हैं तो दोनों धर्मों से भावनात्मक एकता हो
सकती है। इसी प्रकार ओल्ड टेस्टामेंट में मूसा ने जेहोवा का वर्णन किया
है। वह ज्योतिर्बिंदु परमात्मा का ही यादगार है। इस प्रकार विभिन्न
धर्मों के बीच मैत्री भावना स्थापित हो सकती है।

रामेश्वरम्‌ में राम के ईश्वर शिव, वृंदावन में श्रीकृष्ण के ईष्ट
गोपेश्वर तथा एलीफेंटा में त्रिमूर्ति शिव के चित्रों से स्पष्ट है कि
सर्वात्माओं के आराध्य परमपिता परमात्मा शिव ही हैं। शिवरात्रि का
त्योहार सभी धर्मों का त्योहार है तथा सभी धर्मवालों के लिए भारतवर्ष
तीर्थ है। यदि इस प्रकार का परिचय दिया जाता है तो विश्व का इतिहास ही
कुछ और होता तथा साम्प्रदायिक दंगे, धार्मिक मतभेद, रंगभेद, जातिभेद
इत्यादि नहीं होते। चहुँओर भ्रातृत्व की भावना होती।

आज पुनः वही घड़ी है, वही दशा है, वही रात्रि है जब मानव समाज पतन की चरम
सीमा तक पहुँच चुका है। ऐसे समय में कल्प की महानतम घटना तथा दिव्य संदेश
सुनाते हुए हमें अति हर्ष हो रहा है कि कलियुग के अंत और सतयुग के आदि के
इस संगमयुग पर ज्ञान-सागर, प्रेम वकरुणा के सागर, पतित-पावन, स्वयंभू
परमात्मा शिव हम मनुष्यात्माओं की बुझी हुई ज्योति जगाने हेतु अवतरित हो
चुके हैं। वे साकार प्रजापिता ब्रह्मा के माध्यम द्वारा सहज ज्ञान व सहज
राजयोग की शिक्षा देकर विकारों के बंधन से मुक्त कर निर्विकारी पावन देव
पद की प्राप्ति कराकर दैवी स्वराज्य की पुनः स्थापना करा रहे हैं।